________________ पणिहाणतिगं चेइय-मुणिवंदण पत्थणासरूवं वा॥ मण वय काएगत्तं, सेस तियत्थो उ पयत्ति ॥१९॥दार 1 // शब्दार्थ-चैत्यवंदन, मुनिवंदन अने प्रार्थनास्वरूप एग प्रणिधानत्रिक जाणवू. अथवा मन, वचन अने कायान | एकाग्रपणुं करवू ते पण प्रणिधानत्रिक कहेवाय. बाकी बीजा अने सातमा त्रिकनो अर्थ तो प्रगटज छे. // 19 // विस्तारार्थः-प्रणिधानंत्रिक, ते कयुं ? ते कहे . तिहां जावंति चेश्याई ए गाथा चैत्य वां|| दवारूप ते प्रथम प्रणिधान जाणवू. तथा जावंत केविसाहु ए गाथा मुनि वांदवा रूप, ते बीजें का प्रणिधान जाणवू. तथा जयवीयराय आनवमखमा पर्यंत ए गाथा प्रार्थनास्वरूप ते त्रीजु प्रMणिधान जाणवू. अथवा एक मननुं बीजुं वचनअने त्रीजु कायार्नु एकत्व एटले एकाग्रपणुं ते ||| पण प्रणिधानत्रिक कहीये. इहां शिष्य पूजे ले के चैत्यवंदनायें प्रणिधान आवे , अने बीजी शेष | वंदना तो प्रणिधान विनाज थाय डे, तिहां ए बोल सचवाता नथी ते केम ? तेने गुरु कहे जे के Doaawaranwemamawesom/samaa ParuwaDADRAMDoman.anWOODow/DAYS Jain Education International For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org