________________ ०भाव चै०भा० हवे बहुंत्रण दिशि जोवाथी निवर्त्तवानुं त्रिक कहे . // 13 // उड्डा-उर्व दिशि निररुखणं-जोवू दाहिण-जमणी दिशियें नथ्थ-स्थापी राखेली अहो-अधोदिशि चइज्ज-छांड बामण-डावी दिशाए | दिठि-दृष्टिने तिरिआणं-तिदिशि अहवा-अथवा जिणमुह-श्री जिनेश्वरना मु- जुओ-युक्त तिदिसाण-त्रण दिशिनुं पच्छिम-पाछली पूंठनी दिशियें खने विषे उड़ाहोतिरियाणं, तिदिसाण निरख्खणं चइज्जहवा // पच्छिम दाहिण वामण, जिणमुह नत्थदिहि जुओ॥१३॥ शब्दार्थ-उंचे, नीचे अने आडं अवलुंए त्रण दिशाए जोर्बु त्यजी देवू. अथवा पोतानी पाछल, जमणी बाजु अने II डावी बाजुए जोर्बु त्यजी दइ फक्त जिनेश्वरना मुखने विष स्थापेली दृष्टि युक्त वंदन करे. // 13 // विस्तारार्थः-श्री जिनप्रतिमा जुहारतां प्रनु उपर एकांत ध्यान राखवा निमित्ते एक ऊर्ध्व woSDDH/ BoaraaaaaaawanRRBE WEBEDDINDIBamDAND/DVDs/GDamasan Jain Education International For Personal & Private Use Only www.ainelibrary.org