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________________ 58. ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन चौथी पुत्रवधु रोहिणी ने सोचा मैं इन चावल के दानों का संरक्षण, संगोपन करूं और इनकी वृद्धि करूँ। इस हेतु पीहर के कुछ व्यक्तियों को बुलाकर उन्हें आवश्यक निर्देश देकर वे पाँच चावल के दाने दे दिए। पाँच वर्ष पश्चात् धन्य सार्थवाह ने वापिस सभी स्वजनों व मित्रों को बुलाया। उन्हीं के सम्मुख चारों पुत्रवधुओं से एक-एक करके वे चावल के दाने माँगे। पहली ने उन्हें कचरें में फेंक दिए तो धन्य सार्थवाह ने उसे घर में साफ सफाई रखने का कार्य सौंपा। दूसरी पुत्रवधु उज्झिका वे दानें खाई थी इसलिए .धन्य सार्थवाह ने उसे भोजनशाला सम्बन्धी जो-जो कार्य होते हैं वो. सौंपे। तीसरी रक्षिका ने उन दानों को डिबिया में रखकर पाँच वर्ष तक समय-समय पर उसे सम्भालती रही अतएव उसे अर्थव्यवस्था की सुरक्षा हेतु नियुक्त किया। जब चौथी पुत्रवधु रोहिणी से वे पाँच दाने माँगे गए तो उसने कहा उनको लाने के लिए मुझे बहुत से वाहन की आवश्यकता पड़ेगी। वे खेत में बोये गये हैं। धन्य सार्थवाह बहुत प्रसन्न हुआ और उसे गृहस्वामिनी का पद दिया। इस कथा में रोहिणी का जीवन ज्ञातिजनों सम्बंधियों, परिजनों, स्वजनों आदि के सामने विशेष योग्यता का सूचक बनकर आता है जो इस बात की साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि इस जगत में जो कुछ भी लिया जाए उसे विधिवत लेकर ऋण एवं ब्याज सहित चुकाना चाहिए तभी व्यक्ति की महानता है और इसी से उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। मूलत: इस अध्ययन में चार बहुएं संसार के चार गुणों को व्यक्त करती हैं। जो संसार में रहता है उसे परिवार के साथ भी मधुर सम्बन्ध रखने होते हैं। उन मधुर सम्बन्धों की जानकारी गुणों के कारण ही प्राप्त होती है। यथा(१) श्रुत वचन सुनकर उन पर ध्यान नहीं देना यह उपेक्षित भावना का सूचक है। इसलिए कथाकार ने उज्झिका नाम दिया। (2) श्रुत श्रवण कर जो जीवन में उतारता है तथा उसका उपयोग नहीं करता है वह भोगवती है अर्थात् भोगवादी दृष्टिकोण वाला है। (3) जो श्रृत श्रवण करके जीवन में उतारता है और उतारने के बाद उसकी सुरक्षा करता है वह रक्षक दृष्टिकोण वाला है। (4) जो श्रुत श्रवण करके जीवन में उतारता है सुरक्षित करता है और उसे प्रचार एवं प्रसार के माध्यम से जन-जन में रोपित-प्रतिपादित करता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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