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________________ प्राकृत कथा साहित्य का उद्भव एवं विकास 31 ने कहा है -- 'साहित्य के माध्यम से डाले जानेवाले जितने प्रभाव हो सकते हैं वे रचना के इस प्रकार में अच्छी तरह से उपस्थित किए जा सकते हैं, चाहे सिद्धान्त प्रतिपादन अभिप्रेत हो, चाहे चरित्र चित्रण की सुन्दरता इष्ट हो, किसी घटना का महत्व निरूपण करना हो अथवा किसी वातावरण की सजीवता का उद्घाटन ही लक्ष्य बनाया जाय, क्रिया का वेग अंकित करना हो अथवा मानसिक स्थिति का सूक्ष्म विश्लेषण करना इष्ट हो, सभी कुछ इसके द्वारा संभव है। इसी प्रकार अमरकोषकार ने प्रबन्ध कल्पना कोक कथा कहा है।२ कथा के अंग (अ) कथावस्तु- कथावस्तु का तात्पर्य कथा के थीम, प्लॉट या अवान्तर कथाओं से है। (ब) पात्र- वे व्यक्ति जिनके द्वारा घटनाएं घटित होती हैं या जो इन घटनाओं से प्रभावित होते हैं। पात्रों का प्रयोग चरित्र-चित्रण के लिए किया जाता है। (स) संवाद- संवाद कथावस्तु के विकास एवं पात्रों के चरित्र-चित्रण में सहयोग प्रदान करते हैं। - (द) देशकाल- स्थानीय रंग या प्रादेशिक विवरण के साथ युग की सभ्यता और संस्कृति का निरूपण भी देशकाल में होता है। (य) शैली– शैली द्वारा ही लेखक कथा के समग्र जीवन का चित्रण प्रस्तुत करता है। (र) उद्देश्य- किसी न किसी जीवन की विशिष्ट दृष्टि को सामने रखना कथा का उद्देश्य होता है। अत: जीवन दर्शन के किसी विशेष पहलू पर प्रकाश डालना कथा का उद्देश्य है। कथा का महत्त्व . हर युग एवं देश की अपनी लोककथाएँ होती हैं। जिस देश की लोक कथाएँ जितनी समृद्ध होती हैं वह देश उतना ही सभ्य एवं सुसंस्कृत माना जाता है। भारत . 1. कहानी का रचना विधान, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, सन् 1956, पृ०-४-५, (प्राकृत साहित्य का इतिहास, डॉ० नेमिचंद जैन, पृ०-४३८). 2. अमरकोष, 1/5/6. 3. प्राकृत भाषा. और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ०-४४०/१. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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