________________ 30 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन आख्यानों का वास्तविक विकास पुराण और काव्य साहित्य में मिलता है। पुराणों में कथाओं और उपाख्यानों का जो समावेश हुआ है वह मानव जीवन से सम्बन्धित है। अत: कथा आख्यान का एक प्रचलित रूप है। प्राकृत में कथा के लिए 'कत्थ' 2 का प्रयोग हुआ है। ज्ञाताधर्मकथांग में कथा के लिए 'आइक्खिया'३ शब्द आया है। चार प्रकार के काव्यों में कत्थ का अपना स्थान है। कत्थ वार्ता, विवरण आदि के लिए भी प्रयुक्त होता है। न्यायशास्त्र की दृष्टि से कथा उसे कहा गया है जो प्रवक्ताओं के विचारों का, . विषय प्रस्तुत करे या वादी प्रतिवादियों के पक्ष-प्रतिपक्ष को प्रतिपादित करे वह भी कथा है। महापुराणकार जिनसेनाचार्य ने कथन को कथा कहा है। यह कथन मोक्ष पुरुषार्थ के लिए उपयोगी होने के कारण से धर्म, अर्थ और काम का कथन : करता है। विश्व के सभी विचारकों, लेखकों, दार्शनिकों एवं चिन्तकों का यही मत है कि कथा मानव जीवन के मनोविनोद एवं ज्ञानवर्धन का सबसे सुगम एवं स्वाभाविक : साधन है। जिस प्रसंग, घटना या कहानी को व्यक्ति प्रारम्भ से लेकर अन्त तक दत्तचित्त होकर श्रवण करता है और अन्तत: उसी से प्रेरित होकर कुछ ग्रहण करता या सीखता है वही सार्थक कथा है। मानव का सहज आकर्षण भी इसी विद्या पर आधारित है। इसी में मानव जीवन के सत्य की अभिव्यंजना, कलामाधुर्य एवं उत्कण्ठा की सार्वभौमिकता स्पष्ट रूप से झलकती है और यही व्यक्ति को सुसंस्कृत संस्कारों के साथ उल्लास भरी दृष्टि को प्राप्त कराती है। धार्मिक आचार, आध्यात्मिक तत्त्वचिन्तन, नीति, कर्तव्य तथा गूढ़ से गूढ़ विचारों और गहन से गहन अनुभूतियों को सरलतम रूप से जन जन तक पहुंचाने के लिए भी कथाओं का आश्रय लिया जाता है। तीर्थंकरों, गणधरों एवं अन्यान्य आचार्यों ने अपने उपदेशों को हृदयंगम कराने के लिये कथाओं को ही आधार बनाया है। कथा साहित्य की इसी लोकप्रियता के कारण ही डॉ० जगन्नाथ प्रसाद शर्मा 1. शास्त्री, देवेन्द्र कुमार भविसयतकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य, पृ०-६५, भारतीय ___ ज्ञानपीठ, दिल्ली 1970. 2. स्थानांग, 4/4/43. 3. ज्ञाताधर्मकथा, 1/90. 4. वर्णी जिनेन्द्र-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग-२, पृ०-२, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 1986. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org