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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का रचनाकाल,परिचय एवं नामकरण 21 उपांग साहित्य में औपपातिक का कुछ अंश पालि त्रिपिटक जितना प्राचीन है। जीवाजीवाभिगम की विषयवस्तु के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ ई०पू० की रचना होनी चाहिए। प्रज्ञापना सूत्र को स्पष्ट रूप से आर्यश्याम की रचना माना जाता है। आर्यश्याम का आचार्यकाल वीर निर्वाण सं. 335-376 के बीच माना जाता है। अतः यह ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी की रचना निश्चित है। इस प्रकार उपांग साहित्य में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ये तीनों प्रज्ञप्तियाँ प्राचीन मानी जाती हैं क्योंकि इनमें ज्योतिष सम्बन्धी जो चर्चा है वह वेदांग ज्योतिष के समान है जो किसी भी स्थिति में ई. पूर्व प्रथम शताब्दी के बाद की नहीं है। छेद सूत्रों में दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र को स्पष्टतः भद्रबाहु प्रथम की रचना माना गया है। अतः इसका रचनाकाल ई०पू० चौथी-तीसरी शताब्दी के आसपास का ही है। हर्मन जैकोबी, शुबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने छेदसूत्रों की प्राचीनता को स्वीकार किया है। जीतकल्प आचार्य जिनभद्र की कृति है जिनका समय ईस्वी सन् की सातवीं शताब्दी माना गया है। महानिशीथ आचार्य हरिभद्र की रचना है जिनका काल आठवीं शताब्दी माना गया है।२ . मूल सूत्रों में दशवैकालिक को आचार्य शय्यंभव की रचना माना जाता है जो महावीर के निर्वाण के 75 वर्ष बाद हुए अत: इसका रचनाकाल ई०पू० पांचवी-चौथी शताब्दी है। उत्तराध्ययन ई०पू० चौथी-तीसरी शताब्दी की रचना मानी गयी है।३ .. प्रकीर्णक साहित्य में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में मिलने से इन . प्रकीर्णकों का रचनाकाल ईस्वी सन् की चौथी-पांचवीं शताब्दी माना जाता है। आतुर-प्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान और मरणसमाधि आदि की सैकड़ों गाथाएँ मूलाचार और भगवती आराधना में होने से ये सब भी ईसा की चौथी-पांचवी शताब्दी की रचनाएँ मानी जाती हैं। कुछ प्रकीर्णक वीरभद्र द्वारा रचित होने के कारण नवीं-दसवीं शताब्दी की मानी जाती हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपलब्ध आगमों में अधिकांश ग्रन्थ ईस्वी पूर्व के हैं। हमने तो सिर्फ सामान्य रूप से चर्चा की है, परन्तु प्रत्येक आगम ग्रन्थ 1. जैन विद्या के आयाम, खण्ड 5, डॉ. सागरमल जैन का लेख, पृ. 17. 2. जैन विद्या के आयाम, खण्ड 5, पृ०-१७ से उद्धृत. 3. वही, पृ०-१८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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