________________ 20 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार भी, जिन्हें आचार्य भद्रबाहु की रचना माना जाता है याकोबी और शुबिंग के अनुसार आगम ई०पू० चतुर्थ शती के उत्तरार्द्ध से ई०पू० तीसरी शती के पूर्वार्द्ध में निर्मित हैं। पं. दलसुखभाई मालवणिया की मान्यता है कि आगमों का रचनाकाल प्रत्येक ग्रन्थ की भाषा, छंदयोजना, विषय वस्तु और उपलब्ध आन्तरिक और बाह्य साक्ष्यों के आधार पर ही निश्चित किया जा सकता है। आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अपनी भाषा-शैली, विषय-वस्तु, छंदयोजना. आदि की दृष्टि से महावीर की वाणी के सर्वाधिक निकट प्रतीत होता है। उसका काल किसी भी स्थिति में ई०पू० चतुर्थ शती के बाद का नहीं हो सकता है। उसके द्वितीय श्रुतस्कन्ध के रूप में जो 'आचारचूला' जोड़ी गयी है, वह भी ई०पू० दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है। सूत्रकृतांग भी ई०पू० चौथी-तीसरी शती के बाद का नहीं हो सकता, क्योंकि उसके बाद विकसित दार्शनिक मान्यताओं का उसमें कहीं कोई उल्लेख नहीं है।' अंग आगमों में तीसरा क्रम स्थानांग का आता है स्थानांग में नौ गणों और सात निह्नवों के उल्लेख को छोड़कर अन्य ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे उसे परवर्ती कहा जा सके। समवायांग, स्थानांग की अपेक्षा एक परवर्ती ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ में द्वादश अंगों का स्पष्ट उल्लेख है। इतना निश्चित है कि यह ग्रन्थ इसमें निर्दिष्ट आगमों के स्वरूप के निर्धारण के पश्चात् ही बना होगा। इसकी भाषा शैली और विषय वस्तु की दृष्टि से इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की 3-4 शती से पहले का नहीं है। भगवतीसूत्र में कुछ स्तर अवश्य ई०पू० के हैं, किन्तु समवायांग की भांति भगवती में भी पर्याप्त प्रक्षेप हुआ है। कुछ पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वान इसके प्राचीन एवं परवर्ती स्तरों के पृथक्करण का कार्य कर रहे हैं। उनके निष्कर्ष प्राप्त होने पर ही इसका रचनाकाल निश्चित किया जा सकता है। उपासकदशा अपने वर्तमान स्वरूप में ई०पू० की रचना है। यह ईसा की तीसरी शती से परवर्ती नहीं है। अंग आगम साहित्य में अन्तकृत्दशा, समवायांग और नन्दी की रचना के समय अस्तित्व में आ गया था। अत: इसका वर्तमान स्वरूप ईसा की चौथी-पाँचवी शती का है। बहत कुछ स्थिति अनुत्तरौपपातिकदशा की भी यही है। यह ग्रन्थ वल्लभी वाचना के समय ही अपने वर्तमान स्वरूप में आया होगा। प्रश्नव्याकरण सूत्र नन्दी के पश्चात् ई० सन् की पाँचवी-छठवीं शती के मध्य ही कभी निर्मित हुआ है।२ 1. जैन विद्या के आयाम, खण्ड 5, डॉ. सागरमल जैन का लेख, पृ. 13-15. 2. वही, पृ०-१५-१७. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org