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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का रचनाकाल,परिचय एवं नामकरण 19 महावीर की जीवनचर्या का जो उल्लेख है, वे आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के उपधान श्रुत की अपेक्षा परवती एवं विकसित लगते हैं। अर्धमागधी आगमों की प्रथम वाचना, स्थूलिभद्र के समय अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शती में हुई थी, अत: यह तो कहा ही जा सकता है कि उस समय तक अर्धमागधी आगम साहित्य अस्तित्व में आ चुका था। इस तरह अर्धमागधी आगम साहित्य के कुछ ग्रन्थों के रचनाकाल की उत्तर सीमा ई०पू० पाँचवी-चौथी शताब्दी है। इसकी अन्तिम वाचना वीर निर्वाण संवत 980 में वल्लभी में सम्पन्न हुई। उस वल्लभी वाचना में आगमों को संकलित, सुव्यवस्थित और सम्पादित करके लिपिबद्ध किया गया था। इससे यह आगमों का रचनाकाल सिद्ध नहीं होता। क्योंकि संकलन और सम्पादन का अर्थ रचना नहीं है। वस्तुतः अर्धमागधी आगम साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री सुरक्षित है। जिसकी उत्तर सीमा ई०पू० पांचवीं-चौथी शताब्दी या निम्न सीमा ईस्वी सन् की पांचवी शताब्दी है। . अर्धमागधी आगम विशेष या अंग विशेष के रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है। उदाहरण के रूप में स्थानांग में सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जो कि वीर निर्वाण सं. 584 तक अस्तित्व में आ चुके थे, किन्तु उसमें बोटिकों एवं उन परवर्ती गणों, कुलों और शाखाओं के उल्लेख नहीं है, जो वीर निर्वाण सं. 609 अथवा उसके बाद अस्तित्व में आए। अत: विषय वस्तु की दृष्टि से प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। इतना निश्चित है कि कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर अर्धमागधी आगम साहित्य शौरसेनी आगम साहित्य से प्राचीन है। शौरसेनी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी से प्राचीन नहीं है। इस प्रकार आगमों का रचनाकाल ई०पू० पांचवी शताब्दी से ईसा की पांचवी शताब्दी तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्यापक माना जा सकता है, क्योंकि उपलब्ध आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं हैं। आगमों के सन्दर्भ में और विशेष रूप से अंग आगमों के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई०पू० पांचवी शताब्दी की रचना है। ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलिपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अंगों की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे। डॉ. हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है कि आगमों का प्राचीन अंश ई०पू० चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर ई०पू० तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच का है। न केवल अंग आगम, अपितु 1. नियमसार, गाथा-८. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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