________________ 14 . ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन आत्मप्रवाद कर्मप्रवाद प्रत्याख्यान-प्रवाद विधानुप्रवाद कल्याण . प्राणावाय क्रियाविशाल लोकबिन्दुसार दिगम्बर परम्परा में मूल आगमों का लोप माना गया है, फिर भी शौरसेनी प्राकृत में रचित कुछ ग्रन्थों को आगम जितना महत्त्व दिया गया है व उन्हें वेद की संज्ञा देकर चार अनुयोगों में विभक्त किया है:(क) प्रथमानुयोग. __ पद्म, हरिवंश व उत्तर पुराण आदि ग्रन्थ। (ख) करणानुयोग सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जयधवला आदि ग्रन्थ। (ग) चरणानुयोग मूलाचार, त्रिवर्णाचार, रत्नकरण्डक-श्रावकाचार आदि ग्रन्थ। (घ) द्रव्यानुयोग प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, तत्त्वार्थसूत्र, आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थ। एक अन्य दृष्टि से आगमों के सुत्तागम, अर्थागम और तद्भयागम ये तीन भेद भी अनुयोगद्वारसूत्र में मिलते हैं। __आगमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण अंग, उपांग, मूल व छेद के रूप में माना जाता है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में अन्यथा 'हि अनिबद्धअंगोपांगश: समुद्रप्रतरणवदुरध्यवसेयं स्यात्' कहकर अंग के साथ उपांग शब्द का भी प्रयोग किया है।२ प्रभावकचरित्र जो वि०सं० 1334 की रचना है, में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल व छेद के रूप में आगमों का वर्गीकरण देखने को मिलता है।३ मूलरूप से 1. अनुयोगद्वार सूत्र, 470. 2. तत्त्वार्थ-भाष्य 1/20. 3. प्रभावक चरित्र, दूसरा आर्यरक्षित प्रबन्ध. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org