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________________ प्राकृत आगम परम्परा एवं ज्ञाताधर्मकथांग 15 जो बारह अंग ग्रन्थ हैं, उन्हीं के अर्थों को स्पष्ट करने के लिये उपांगों की रचना हुई है, ऐसा माना जाता है। मूलसूत्रों के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों की अलग-अलग धारणाएँ हैं। समयसुन्दरगणि ने दशवैकालिक, ओघनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति व उत्तराध्ययन को मूलसूत्र माना है। डॉ. सारपेन्टियर, डॉ. विन्टरनित्ज और डॉ. ग्यारीनों ने उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक व पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र माना है। 1 स्थानकवासी व तेरापंथ सम्प्रदाय उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी व अनुयोगद्वार को मूलसूत्र मानते हैं। छेद सूत्रों का प्रथम उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में हुआ है। सामाचारी शतक में समय-सुन्दरगणि ने दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, वृहत्कल्प, निशीथ, महानिशीथ व जीतकल्प को छेद सूत्र माना है। जीतकल्प को छोड़कर बाकी पाँचों का उल्लेख नन्दीसूत्र में भी हुआ है। स्थानकवासी परम्परा में दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, वृहत्कल्प व निशीथ ये चार ही छेद सूत्र माने जाते हैं। जैन आगम साहित्य की संख्या के सम्बन्ध अनेक मतभेद हैं। श्वेताम्बर स्थानकवासी व तेरापंथ सम्प्रदाय बत्तीस आगम मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय पैंतालीस आगम मानते हैं। इनमें से ही कुछ चौरासी आगम भी मानते हैं। दिगम्बर परम्परा आगम के अस्तित्व को स्वीकार तो करती है, परन्तु उनके मतानुसार सभी आगम विच्छिन्न हो गये हैं। इस प्रकार जैन साहित्य में आगमों को प्रमख व सर्वोच्च सम्मान प्राप्त है। तीर्थकर और केवलज्ञानियों ने जो अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से हेय, ज्ञेय, उपादेय आदि को जैसा देखा वैसा प्रतिपादित किया, जिसे गणधर व अन्य शिष्यों के द्वारा पहले श्रुत रूप में व बाद में लिपि. रूप में संकलित किया गया। इस श्रुत परम्परा के मध्य, काल के प्रभाव से कुछ श्रुत विच्छिन्न भी हुए, परन्तु फिर भी बहुत कुछ शेष रहे। उसी के आधार पर बत्तीस, पैंतालीस व चौरासी आगमों की रचना हुई। इन आगमों में श्रमण व गृहस्थ जीवन के प्रत्येक पहलू विशेष रूप से आध्यात्मिकता व धार्मिकता को छूने वाले प्रसंग हैं। व्यक्ति अपना आत्मकल्याण कैसे करे, इसके 1. शास्त्री, देवेन्द्रमुनि- जैन आगम साहित्य: मनन और मीमांसा, पृ. 22. 2. मेहता, मोहनलाल, जैन दर्शन, पृ०-८९. 3. आवश्यकनियुक्ति, 777. 4. कालियं अणेगविहं पण्णतं, तंजहा उत्तरज्झयणनइं, दसाओ कप्पो, ववहारो, निसीहं, महानिसीहं / नन्दीसूत्र, 81. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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