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________________ 172 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन में भूतकाल का प्रयोग अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जिसमें मूल क्रिया में इंसु, एसुं (गच्छिसुं, गच्छेसं) जैसे विशेष प्रयोग हैं। अनियमित प्रयोगों के रूप में पण्णत्ते. निग्गया. निग्गओ. पडिगया आदि क्रिया रूपों का प्रयोग है। भूतकाल में था, थी, थे के लिए ‘होत्था' के प्रयोग की बहुलता है। गच्छिंसु, गच्छेसुं, होत्था, हुत्था का प्रयोग प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष, उत्तम पुरुष के एकवचन और बहवचन दोनों में ही हआ है। इसी तरह अन्य प्रयोग भी हैं। भविष्यत्काल में 'भणिस्सति', 'भणिहिति' जैसे प्रयोग हैं जो अन्य आगमों में भी समान रूप से विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त भविष्यत्काल के उत्तम पुरुष में 'होस्सं' रूप भी मिलता है। कर्मणि एवं प्रेरणार्थक को बतलाने के लिए 'कराविति' (आवि प्रत्यय), 'वएज्जा', 'वएज्ज' आदि का प्रयोग किया गया है। इसी तरह वर्तमान, भविष्यत् एवं विधि अर्थक ज्ञान के लिए दोनों वचनों एवं तीनों पुरुषों में ‘ज्ज', 'ज्जा' क्रिया में इन दो प्रत्ययों को लगाकर काम चलाया गया है। भाषात्मक दृष्टि को स्वतन्त्र रूप में प्रस्तुत करने पर ही ज्ञाताधर्म की अर्धमागधी भाषा के स्वरूप का बोध हो सकता है। यह प्रयास हो रहा है जिससे अर्धमागधी आगमों का भाषा की दृष्टि से सही ज्ञान हो सके। यहाँ सिर्फ. संक्षिप्त तथा मूल एक दो ही प्रयोगों को दृष्टान्त रूप में रखकर ज्ञाताधर्म के भाषात्मक स्वरूप को स्पष्ट किया गया है जो नगण्य ही कहा जा सकता है। संस्कृति साहित्य के अंचल का वह भाग है जिसमें सामान्य व्यक्ति से लेकर सम्पूर्ण सामाजिक परिवेश बंधा हुआ है। इसमें विविध वातावरप्प रीति-नीति, विश्वास, भौगोलिक परिचय, ऐतिहासिक सन्दर्भ, राजनैतिक दृष्टिकोण, आर्थिक जीवन, कला, धर्मदर्शन आदि सांस्कृतिक विरासत के अन्तर्गत आते हैं। इसके बिना सनातन परम्परा का ज्ञान नहीं हो सकता है और न किसी ग्रन्थ के साहित्यिक स्वरूप का ज्ञान ही संभव है। सांस्कृतिक मूल्यों के सभी स्वरूप ज्ञाताधर्म में समाहित हैं जिनकी संक्षिप्त जानकारी दी गयी है। ज्ञाताधर्मकथांग का सम्पूर्ण परिवेश घटनाक्रमों के वैविध्य से जुड़े हए अनेक प्रकार के शिल्प विधाओं को भी प्रस्तुत करते हैं। साथ ही यह लोक जीवन की गहरी अनुभूति से युक्त सशक्त कड़ियों में जुड़ा हुआ, कथा के सरस और रोचक सूत्रों को भी प्रतिपादित करता है। इसके कथानकों में नवनिर्माण की विचारधारा को भी देखा जा सकता है। इसकी कथाएँ प्रान्त, देश, सम्प्रदाय, धर्म, राजनीति आदि की भावनाओं से ही नहीं जुड़ी हैं, अपितु गाँव से लेकर नगर के उन्नत वातावरण से भी घनिष्ठता स्थापित की हुई हैं। इसमें मानव को मानव बनाने की शिक्षा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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