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________________ 170 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन ग्रन्थ का रूप प्रदान किया। आगम को अंग, उपांग, मूलसूत्र, छेदसूत्र आदि के रूप में विभाजित किया गया है। इनका यह विभाजन विविध वाचनाओं के माध्यम से किया गया है। ज्ञाताधर्मकथांग अंग आगमों का छठा ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में सिद्धान्त, आचार-विचार संयम-साधना आदि को समझाने के लिए संयमी जीवों की प्रचलित कहानियों एवं प्रचलित पशु-पक्षियों के उदाहरणों को सामने रखकर कहीं प्रतीकात्मक योजना बनाई गयी है तो कहीं पौराणिक एवं ऐतिहासिक कथा को लेकर सिद्धान्त का निरूपण किया गया है। ज्ञाताधर्मकथांग की रचना कब और किसने की यह कहा नहीं जा सकता, क्योंकि यह मूल अंग आगम ग्रन्थों का एक सूत्र ग्रन्थ है जिसे अर्थरूप में अरिहन्त भगवन्त ने प्रतिपादित किया और गणधरों ने उसे सूत्रबद्ध किया। पंचम गणधर आर्य सधर्मा स्वामी ने जो प्रश्न किये उन्हीं प्रश्नों का समाधान जम्बूस्वामी ने किया। जम्बूस्वामी के समाधान कथात्मक रूप में हैं। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में सुधर्मा-जम्बूस्वामी का वर्णन एवं ‘णायाणि य धम्मकहाओ य' शब्द इसकी प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। इसके प्रारम्भ में इस बात का भी विवेचन किया गया है कि यह धर्मकथा छठे अंग के रूप में दो श्रुत स्कन्धों में विभाजित है। जो ज्ञातृपुत्र महावीर के द्वारा प्रतिपादित अर्थ को व्यापक रूप प्रदान करती है। ज्ञाताधकथांग से सम्बन्धित ग्रन्थों का प्रकाशन समय-समय पर किसी न किसी रूप में अवश्य हुआ है। पूर्व में हस्तलिखित पाण्डुलिपि के रूप में और बाद में विशेष सम्पादन के रूप में प्रताकार प्रतियाँ हमारे सामने आयीं। पुन: जन-जन में लोकप्रिय बनाने के लिए इन्हें पुस्तकाकार रूप दिया गया और लगभग बीसवीं शताब्दी के मध्य में हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित किया गया, जिनमें मूल पाठों की सुरक्षा भी की गई। प्राकृत कथा साहित्य का स्वरूप आगमों के हृदय में विद्यमान है। आचारांग में महावीर का जीवन स्वरूप कथात्मक रूप में ही आया है। सूत्रकृतांग में भी कई प्रकार की कथाएँ है, परन्तु वे कथाएँ कथानक, कथाविकास, पात्र चरित्र-चित्रण, उद्देश्य आदि को विस्तार निरुपित नहीं करती हैं। ज्ञाताधर्मकथा जैन साहित्य का प्रथम कथाग्रन्थ है। भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही दृष्टियों से ज्ञाताधर्मकथांग को प्राचीन कथाग्रन्थ कहा जा सकता है। साथ ही यह भी प्रमाणित होता है कि प्राकृत के आगम ग्रन्थों की कथाओं से ही कथाओं का विकास हुआ है। ज्ञाताधर्मकथांग की कथाएँ कथा प्रवृत्तियों के सम्पूर्ण अन्तरंग एवं बहिरंग भावों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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