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________________ 164 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन इस प्रकार ज्ञाताधर्मकथांग में वास्तुकला, चित्रकला, संगीतकला, काव्यकला आदि कई प्रकार की कलाएँ शिक्षित समाज के मापदण्डों को प्रस्तुत करती हैं। प्राकृत साहित्य के इस आगम में पुरुषों की बहत्तर कलाओं एवं नारियों की चौसठ कलाओं का उल्लेख है। अन्य ग्रन्थों में भी कला के बहत्तर और चौसठ भेद दिए गए हैं। समवायांग, भगवती, राजप्रश्नीय, औतपातिक, कल्पसूत्र टीका आदि में उक्त प्रकार की कलाओं का विवेचन किया गया है। ये कलायें व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में जितनी महत्त्वपूर्ण हैं उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण शिक्षा-पद्धति के उद्देश्य को व्यक्त करने में। शिक्षा-पद्धति के क्षेत्र में कला-विज्ञान का न केवल सामाजिक जीवन, बल्कि चरित्र निर्माण, संस्कृति रक्षा आदि में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्हीं कलाओं द्वारा प्राचीन शिक्षा-पद्धति का बोध होता है। ज्ञाताधर्म में शिक्षा के प्रारम्भ का समय आठ वर्ष का बतलाया गया है। शिक्षार्थी कलाचार्य के पास जाकर सभी प्रकार की कलाओं का ज्ञान प्राप्त करता है और जब वह पूर्ण यौवन को प्राप्त होता है तब उन शिक्षा के साधनों के माध्यम से सामाजिक जीवन के क्षेत्र में प्रवेश करता है। शिक्षित समाज में शिक्षा के बिना व्यक्ति की कोई उपयोगिता नहीं होती है। यदि शिक्षा अनर्थकारी है तो भी वह समाज, देश, राष्ट्र आदि में सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता है। . अतः मानवीय एवं शारीरिक विकास के लिए कला एवं विज्ञान के अध्ययन की महती आवश्यकता जितनी तब थी उससे कहीं अधिक इस भौतिकवादी युग में है क्योंकि इसके बिना किसी भी तरह का विकास सम्भव नहीं है। धार्मिक जीवन संस्कृति के क्रमिक विकास के साथ ही मानव कल्याण के लिए धर्म का स्वरूप प्रकाश में आया। प्राचीन काल से ही मनीषियों ने धर्म को न केवल इस जन्म के कल्याण का साधन माना है अपितु अगले जन्म के कल्याण का भी साधन माना है, अत: ऐहिक अभ्युदय और पारलौकिक नि:श्रेयस की प्राप्ति ही धर्म का धर्मत्व है। यदि मनुष्य अपने अधिकार के अनुसार धर्म के आदेश का अनुगमन करते हुए निष्काम भाव से कर्मों को करता रहे तो वह इहलोक में चरम सुख एवं शान्ति और परलोक में मोक्ष को प्राप्त करने में सफल हो सकता है। प्रमुख धर्म धर्म शब्द का अनेक रूपों में प्रयोग मिलता है जैसे- श्रुतधर्म, गृहस्थधर्म, दानधर्म, पदार्थधर्म, कुलधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म, गणधर्म, संघधर्म, चरित्रधर्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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