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________________ 160 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन को महापथ कहा जाता था। जहाँ तीन दिशाओं से आकर सड़के मिलती थीं उन्हें शृंगाटक, चार दिशाओं से आकर मिलती थीं उन्हें चौक, जहाँ छ: सड़कें आकर मिलती थीं उन्हें प्रपट कहा जाता था। सड़कमार्ग पर लकड़ी की गाड़ियों का प्रयोग किया जाता था।२ ये पशुओं द्वारा खींची जाती थीं। जलमार्ग में नौकाओं का प्रयोग किया जाता था।३ देशान्तर में जहाज के प्रयोग के भी उल्लेख मिलते हैं जिसमें डांड एवं पतवार लगे रहते थे। पाल के सहारे जहाज आगे बढता था। उसे रोकने के लिए पतवार डाल दिया जाता था। ___ इस प्रकार आजीविका के प्रथम साधनों में असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्पविद्या आदि कार्यों को महत्त्व दिया गया है। इंगालकम्म, वणकम्म, साडीकम्म आदि पन्द्रह कर्म आजिविका के प्रमुख साधन थे। परन्तु इन साधनों को श्रेष्ठ नहीं कहा गया है, क्योंकि इनसे जीव रक्षण न होने के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी होता था। इन साधनों के अतिरिक्त रत्न-व्यापार, वस्त्र-उद्योग, शिल्पकला, धातु-उद्योग, कलाशिक्षण, अश्व-शिक्षण, हस्तिविद्या, रथवाहन-विद्या, लेख, नाट्य, काव्य, गजलक्षण, धातु परीक्षण, मणिसूचक, मणिभेदक,धर्नुविद्या आदि से लोग आजीविका चलाते थे। तत्कालीन समाज में बहत्तर प्रकार की कलाओं की शिक्षा इसी बात का संकेत करती है कि व्यक्ति इनके माध्यम से जीवन को उपयोगी बना सकता है। जहाँ व्यक्ति के लिए बहत्तर कलाएँ थीं वहीं पर नारियों की जीवन पद्धत्ति को समाज में विशेष स्थान दिलानेवाली चौसठ कलाएँ थीं। इन चौसठ कलाओं को उनकी आजीविका का साधन कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सारांशतः आर्थिक जीवन के लिए कई प्रकार के साधनों का निरुपण इस आगम में किया गया है जो न केवल उस समय उपयोगी था अपितु आज भी अत्यन्त उपयोगी एवं सार्थक है। अर्थ के बिना जीवन पद्धति नहीं चल सकती इसलिए अर्थोपार्जन के विविध साधनों का जो इस आगम में उल्लेख किया गया है उसका स्वरूप आज भी विद्यमान है। कला एवं शिक्षण कला मानव जीवन में सौन्दर्यानुभूमि की अभिव्यक्ति है। कला धर्म, ज्ञान और संस्कृति का दर्पण होता है। विभिन्न धर्म परम्पराओं में कलाओं का उल्लेख प्राप्त 1. ज्ञाताधर्मकथा 1/44. 2. राजप्रश्नीय सूत्र 139/76, ज्ञाताधर्मकथा 1/202. 3. ज्ञाताधर्मकथा 1/8/54. 4. वही, 17/476. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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