________________ 156 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन - सामाजिक जीवन की तरह राजनैतिक व्यवस्था भी अत्यन्त उपयोगी मानी गयी है। नैतिक जीवन, सदाचार, धर्मरक्षा, अर्थरक्षा, जीवन रक्षा, प्राणी रक्षा, दण्ड-व्यवस्था, न्याय-नीति, नगर सुरक्षा, वन संरक्षण, कर-व्यवस्था आदि के लिए शासन व्यवस्था आवश्यक है। कथाकार ने सभी जगह राजा को प्रजारक्षक, राजपुत्र को जनसेवक, मंत्री को शासन-व्यवस्था में सहभागी, पुरोहित को सामाजिक योगदान में अग्रणीय, मण्डप को विचार-विमर्श का केन्द्र, अन्त:पुर को रानियों के निवास का सुन्दर स्थान एवं राजप्रासाद आदि को भव्य तथा नगर की शोभा का केन्द्रबिन्दु माना है। पड़ोसी देश एवं राष्ट्र की सुरक्षा हेतु सेना की व्यवस्था की जाती थी जिसमें पदाति सैन्य, अश्व सैन्य, वाहन एवं जलयान-व्यवस्था प्रमुख थी, क्योंकि पड़ोसी राजा की राजनीति या दुष्चक्र का प्रभाव कब और किस समय युद्ध का रूप धारण कर ले यह निश्चित नहीं रहता था। सेनापति सेना का प्रमुख होता था। आज भी युद्ध क्षेत्र में यह व्यवस्था देखने को मिलती है। अस्त्र-शस्त्र आदि में अग्नेयास्त्र, प्रक्षेपास्त्र आदि प्रमुख थे जो आज भी विद्यमान हैं। राज्य शासन का कार्य राजा स्वयं करता था। अपराधों की जाँच के लिए मंत्री भेजे जाते थे। वे जो अपराध प्रस्तुत करते थे उन्हें विशेष न्यायाधीश के द्वारा उचित न्याय दिलवाया जाता था। गुप्तचर विभाग, चोरी, डकैतों आदि का पता लगाता था। इसके पश्चात् अपराधी को दण्ड दिया जाता था। राज्य की सुरक्षा, प्रजा की रक्षा एवं दुष्काल के समय लोगों की सहायता हेतु बड़े-बड़े कोषागार बनाए जाते थे। धन-व्यवस्था के लिए कर लगाया जाता था। जीवन रक्षा के लिए आहार, औषधि आदि की व्यवस्था की जाती थी। चोरों को रोकने के लिए कोतवाल आदि की व्यवस्था की जाती थी। छोटे-मोटे विवादों का ग्राम, उपग्राम, नगर, उपनगर आदि में ही निपटारा किया जाता था। इस प्रकार की शासन-व्यवस्था से यह प्रतीत होता है कि बिना राजा, मंत्री, सेना आदि के द्वारा राज्य सत्ता को स्थायित्व नहीं प्रदान किया जा सकता। अत: कहा जा सकता है कि शासन-व्यवस्था आज भी उतनी ही उपयोगी है जितनी पूर्व में थी। आर्थिक जीवन संसार में अर्थ का महत्त्व सर्वत्र व्याप्त है। ज्ञाताधर्म में नन्द नामक मणिकार ने धन देकर पुष्करिणी बनाने की आज्ञा प्राप्त की थी। शास्त्रों में अर्थ एवं काम 1. ज्ञाताधर्मकथांग, मुनिमधुकर 10/11/13/11. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org