________________ 152 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन पर यह कहा जा सकता है कि उस समय की सामाजिक व्यवस्था के घटक आधुनिक यग को निश्चित ही नई दिशा प्रदान करने में समर्थ हैं। राजा नीति निपुण एवं प्रजारक्षक होता था जो आज भी संवैधानिक है। परिवार में माता-पिता, भाई-बहिन की जो व्यावहारिक स्थिति पूर्व में थी वह अब विलुप्त होती हुई नजर आ रही है, क्योंकि परिवार विभाजित होते जा रहे हैं। परन्तु पूर्व में ऐसा नहीं था इसलिए सभी प्रकार की समाज व्यवस्था बनी हुई थी। समाज में नारी का स्थान सम्मानजनक था। कन्या, पत्नी, माता, विधवा, साध्वी, गणिका आदि को तात्कालीन समाज में शिक्षित बनाया जाता था ताकि वे नाना प्रकार के आडम्बरों से रहित सदाचारपूर्वक जीवनयापन कर सकें। उस समय कुल मर्यादा को विशेष महत्त्व दिया जाता था जो आज भी विद्यमान है, परन्तु कुछ अनावश्यक व्यवधान कुल मर्यादा में बाधक बन गये हैं, अत: आज इस प्रकार के आगमिक विषय को अत्यन्त प्रभावशाली माना जा सकता है। तत्कालीन समाज में खान-पान आदि पर भी विचार किया जाता था। अनाहार, फलाहार और मांसाहार ये तीनों आहार प्रचलित थे परन्तु अन्नाहार और फलाहार को ही सर्वत्र महत्त्व दिया गया, मांसाहार को नहीं। आज शाकाहार का आन्दोलन नया नहीं है, बल्कि यह प्राचीनकाल में भी विद्यमान था। आज भी इसकी परम आवश्यकता है क्योंकि मांसाहार से मूल प्राणियों के वध से पर्यावरण प्रदूषण भी होता है, अत: जो ज्ञाताधर्म में भोजन-पान-सम्बन्धी व्यवस्थाएँ की गयी हैं वे व्यक्ति को न केवल निरोगी बनाती हैं, अपितु जीव संरक्षण में भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। अत: समाज मानव जीवन के लिए एक ऐसा संगठित स्थान है जहाँ परम्पराएँ बनती हैं और बिगड़ती भी हैं। अत: सुखी सामाजिक व्यवस्था की तब से अब तक मांग बनी हुई है। सुखी समाज की कल्पना आचार-विचार की सम्यक्-विधि से ही संभव है। अत: सदाचरण युक्त सामाजिक जीवन को बनाए रखना ही इस आगम की प्रमुख शिक्षा है। शासन-व्यवस्था जैन अंग आगमों में राज्य व्यवस्था के सम्बन्ध में कोई व्यवस्थित उल्लेख नहीं है फिर भी ज्ञाताधर्मकथांग में कहीं-कहीं पर प्राप्त उस काल की राजनैतिक व्यवस्था की झाँकी मिलती है। उदाहरणार्थ- राजा, युवराज, उत्तराधिकारी, राज्याभिषेक, राजप्रासाद, मंत्री एवं पदाधिकारी, कर-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था आदि मुख्य हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org