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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का भाषा विश्लेषण 117 (ग) अपभ्रंश युग की प्राकृत (क) प्रथम युगीन प्राकृत- इसके विचारकों ने निम्न भेद किए हैं(१) शिलालेखीय प्राकृत (2) धम्मपद की प्राकृत (3) आर्ष प्राकृत (4) प्राचीन आगमों की प्राकृत (5) अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत।१ उक्त प्राकृतों को भाषा-वैज्ञानिकों ने ई०पू० छठी शती से ईस्वी द्वितीय शताब्दी तक का माना है। बौद्ध जातकों की भाषा का युग भी यही माना गया है। (ख) मध्य युग की प्राकृत- इसमें निम्न प्राकृतों को रखा गया है(१) नाटकों की प्राकृत (2) प्राचीन काव्यों की प्राकृत (3) परवर्ती काव्यों की प्राकृत : (4) वैयाकरणों द्वारा निरुपित प्राकृत (5) बृहद्कथा की प्राकृत। उक्त प्राकृतों का समय ईसा 200 से 600 ईस्वी तक माना गया है।२ (ग) अपभ्रंश युग- यह युग 600 से 1200 ईस्वी तक का माना गया है। इसमें सभी प्रकार की प्रादेशिक- राजस्थानी, मराठी आदि भाषाओं का समावेश हो गया है। सामान्यत: प्राकृत भाषा का स्त्रोत एक ही था। परन्तु देश, काल, वातावरण एवं जनता की बोलियों के कारण उसके अनेक भेद हो गए। विचारकों ने देश, काल, वातावरण के अनुसार उसके भेदों को प्रस्तुत वर्गीकरण के अनुसार नामकरण किया - (1) आर्ष प्राकृत (2) शिलालेख प्राकृत 1. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० 17. - 2. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० 17. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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