________________ 118 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन (3) निया प्राकृत (4) धम्मपद की प्राकृत (5) अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत। (क) आर्ष प्राकृत- महावीर और बुद्ध द्वारा प्रयुक्त भाषा को आर्ष प्राकृत के अन्तर्गत रखा गया है क्योंकि ये दोनों मुनि थे। इनके द्वारा जिस क्षेत्र में विचरण किया गया उस क्षेत्र के अनुसार उसका नामकरण भी किया गया। बुद्ध की भाषा को पालि और महावीर की भाषा को अर्द्धमागधी कहा गया। अर्धमागधी भाषा में अंग, उपांग, आदि लिखे गये। ज्ञाताधर्मकथा अंग आगमों का कथात्मक ग्रन्थ है, जिसकी भाषा अर्द्धमागधी है। अर्धमागधी भाषा यह भाषा महावीर के उपदेश की भाषा थी। उनके उपदेशों को आचार्यों ने विविध सम्मेलनों के माध्यम से ग्रन्थ का रूप दिया जिन्हें अंग, उपांग, छेदसूत्र, मूलसूत्र, प्रकीर्णक, चूलिका आदि नाम दिया गया। अर्धमागधी भाषा का विषय और क्षेत्र दोनों ही व्यापक था। इसे आर्ष कहा गया तथा प्राचीन भी माना गया है। अर्द्धमागधी के प्राचीन रूप शिलालेखों में प्राप्त होते हैं। साथ ही आगमों में तो इसकी व्यापकता है ही। ___आचार्य हेमचन्द्र ने 'आर्षम्'१ सूत्र के माध्यम से इसकी प्राचीनता को सुनिश्चित कर दिया है। परन्तु यह भाषा विशाल देश की भाषा के साथ-साथ पश्चिम मगध और मथुरा के मध्यवर्ती भाग की प्रादेशिक भाषा थी। सामान्य रूप से अर्धमागधी शब्द 'अर्धमागध्या' से आया है अर्थात् जिसका अर्धांश मागधी हो, वह भाषा अर्धमागधी कही जाती है। यह व्युत्पत्ति नाटकीय अर्धमागधी में पायी जाती है। जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूर्णि नामक ग्रन्थ में मगध देश के अर्धांश की भाषा को अर्धमागधी कहा है। इसमें 18 देशी भाषाओं का मिश्रण माना जाता है। इसका मूल उत्पत्ति स्थान मगध व मथुरा का मध्यवर्ती प्रदेश अयोध्या है। तीर्थङ्कर अपना उपदेश अर्धमागधी में देते थे क्योंकि यह जनसामान्य की भाषा थी।२ डॉ. हार्नले ने अपने प्राकृत लक्षण में इसे आर्ष प्राकृत कहा है। समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, औपपातिक एवं प्रज्ञापनासूत्र आदि ने जिस भाषा 1. सिद्ध हेमशब्दानुशासन 8/1/1. 2. “भगवं च अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ” (समवायांग सूत्र पत्र- 60). 3. इन्ट्रोडक्शन टू प्राकृत लक्षण आफ चण्ड पेज 19/1. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org