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________________ 116 ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन 9. डॉ. सुभाष कोठारी ने 'उपासकदशांग का आलोचनात्मक अध्ययन' में प्रकृतिजन्य भाषा को ही प्राकृत माना है। इसके अतिरिक्त अन्य कितने ही विचारक इसी बात को प्रमाणित करते हैं कि प्राकृत जनभाषा थी। इसका अस्तित्व प्राचीनकाल से ही मिलता है। महावीर और बुद्ध ने अपनी देशना का आधार इसी जनभाषा को ही बनाया। अशोक, खारवेल आदि जैसे महान शासकों ने भी प्राकृत को सर्वोपरि मानकर शिलालेखों पर इसी. भाषा में लेख अंकित कराए। आज भी बहुत से शिलालेख प्राकृत में ही उपलब्ध हो रहे हैं। प्राकृत की उत्पत्ति जनभाषा से हुई है और प्राकृत से ही सभी राजस्थानी, गुजराती आदि भाषाएं निकली हैं। वाक्पति राज ने गउडवहों महाकाव्य में लिखा है कि जिस प्रकार जल समुद्र में प्रवेश करता है और समुद्र से ही वाष्परूप में बाहर निकलता है उसी प्रकार प्राकृत भाषा में सब भाषाएँ प्रवेश करती हैं और इसी प्राकृत भाषा से सब भाषाएँ निकलती हैं। “सयलाओ इमं वाया विसंति एत्तो य णेति वायाओ। एंति समुद्द चिय ऐति सायराओ च्चिय जलाइं"।१ प्राकृत भाषा के प्रमुख भेद एवं सम्बन्ध प्राकृत के मूलत: दो रूप हैं- (क) कथ्य प्राकृत और (ख) साहित्यिक प्राकृत। इन दोनों रूपों का अपना विशेष महत्त्व है। कथ्य प्राकृत जनता के बीच बोली जाती थी। वेद इसकी प्राचीनता के प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त महावीर एवं बुद्ध के पश्चात् इसी भाषा में आगमों के रूप में साहित्य का प्रणयन हआ जिसे सर्वज्ञवाणी का श्रेष्ठतम रूप माना गया। धीरे-धीरे काव्यविद्या का विकास हुआ। कवियों ने काव्यों की रचना की और सिद्धान्त विवेचकों ने छन्दोबद्ध रचना में जिनधर्म की समीक्षा भी इसी भाषा में प्रस्तुत की। इस प्रकार साहित्य का जो प्रारम्भिक रूप था उसे छान्दस् साहित्य, वैदिक साहित्य और आगम साहित्य की संज्ञा दी गई। यही निबद्ध साहित्य विविध प्राकृत भाषाओं के सौन्दर्य को लेकर साहित्यकारों के बीच में उपस्थित हुआ। प्राकृत भाषा का विभाजन युग के अनुसार प्राकृत भाषा को तीन युगों में विभाजित किया गया है(क) प्रथम युग की प्राकृत (ख) मध्य युग की प्राकृत 1. गउडवहो- श्लोक 93. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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