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डॉ. जगदीश चन्द्र जैन ने अपनी पुस्तक - प्राकृत साहित्य का इतिहास (पृ. ६१२-६१३) में लिखा है कि - संस्कृत नाटकों का अध्ययन करने से पता चलता है कि इन नाटकों में उच्चवर्ग के पुरुष, अग्रमहिषियाँ, राजमन्त्रियों की पुत्रियाँ आदि संस्कृत तथा साधारणतया स्त्रियाँ, विदूषक, श्रेष्ठी, नौकर-चाकर आदि निम्नवर्ग के लोग प्राकृत में बातचीत करते हैं।
नाट्यशास्त्र के पण्डितों ने जो पूर्वोक्त रूपक और उपरूपक के भेद गिनाये हैं, उनमें भाण, डिम, वीथी तथा सट्टक, त्रोटक, गोष्ठी, हल्लीश, रासक, भाणिका, और प्रेखण आदि मुख्यतः लोकनाट्य के ही प्रकार हैं। इन नाटयों में धूर्त, विट, पाखण्डी, चेट, चेटी, नपुंसक, भूत, प्रेत, पिशाच, विदूषक हीनपुरुष आदि अधिकांश पात्र वहीं हैं, जो नाटकों में प्राकृत भाषाएं बोलते हैं। इससे यही प्रतीत होता है कि प्राकृत सामान्यतः सम्पूर्ण जनसाधारण की तथा संस्कृत पण्डित, पुरोहित
और राजाओं की भाषा मानी जाती थी। ___स्त्रियाँ प्रायः शौरसेनी प्राकृत में ही बात करती हैं। संस्कृत उनके मुँह से अच्छी नहीं लगती। महाकवि शूद्रक कृत मृच्छकटिकम् प्रकरण (नाटक) में विदूषक कहता है कि – 'दो वस्तुयें हास्य की सृष्टि करती हैं - प्रथम वस्तु है – 'स्त्री के द्वारा संस्कृत भाषा का प्रयोग' और दूसरी वस्तु है - 'पुरुष द्वारा धीमे स्वर में गायन'। सूत्रधार यद्यपि संस्कृत में सम्वाद बोलता है, पर ज्यों ही वह स्त्रियों को सम्बोधित करता है, तब वह प्राकृत भाषा का प्रयोग करने लगता है। नाटकों में अधिकांश पात्र शौरसेनी में बोलते थे तथा अत्यन्त पिछड़े-उपेक्षित जन पैशाची और मागधी प्राकृत में।
. तात्पर्य यह है कि निम्न पात्र अपने-अपने देश की प्राकृत भाषाओं में बातचीत करते थे और संस्कृत नाटकों को लोकप्रिय बनाने के लिए भिन्न-भिन्न पात्रों के मुख से उन्हीं की जन-बोलियों में बातचीत कराना औचित्यपूर्ण भी था।
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