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क) नाटकों में प्राकृतों के प्रयोग का शास्त्रीय विधान .....
प्राकृत भाषाओं का प्रथम नाटकीय प्रयोग संस्कृत नाटकों में उपलब्ध होता है। भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र (१७.३१.४३) में धीरोदात्त और धीरप्रशान्त नायक, राजपत्नी, गणिका और श्रोत्रिय ब्राह्मण आदि के लिए संस्कृत भाषा बोलने, तथा श्रमण, तपस्वी, भिक्षु, चक्रधर, भागवत, तापस, उन्मत्त, बाल, नीच ग्रहों से पीड़ित व्यक्ति, स्त्री, नीच जाहत और नपुंसकों के लिए प्राकृत बोलने का निर्देश किया है। यहां भिन्न-भिन्न पात्रों के लिए भी अलग-अलग प्राकृत भाषाओं को बोलने का भी निर्देश किया है। ख) पात्रानुसार विभिन्न प्राकृतों का प्रयोग-विधान . नाट्यशास्त्र में भिन्न-भिन्न पात्रों के लिए शौरसेनी, महाराष्ट्री, पैशाची आदि भिन्न-भिन्न प्राकृत भाषाएँ बोले जाने का उल्लेख इस प्रकार है – नायिका और उसकी सखियों द्वारा शौरसेनी, विदूषक आदि द्वारा प्राच्या, पूर्वी शौरसेनी धूर्तों द्वारा अवन्तिजा (उज्जैनी में बोली जानी वाली शौरसेनी), चेट, राजपूत और श्रेष्ठियों द्वारा अर्धमागधी, राजा के अन्तःपुर रहने वालों, सुरंग खोदने वालों, सेंध लगाने वालों, नगर रक्षक आदि और जुआरियों द्वारा दाक्षिणात्या तथा उंदीच्य और खसों द्वारा बालीक भाषा अपने सम्वादों में बोलने का विधान है। (१७.५०-२)
इसी प्रकार विभाषाओं में शाकारी, आभीरी, चाण्डाली, शाबरी, द्राविड़ी और आन्ध्री के नाम गिनाये हैं। इनमें पुल्कस (डोम्ब) द्वारा . चाण्डाली, अंगारकारक (कोयल तैयार करने वाले)? व्याध, काष्ठ और मन्त्र से आजीविका चलाने वालों और वनचरों द्वारा शाकारी भाषा बोली जाती थी। गज, अश्व, अजा, ऊष्ट्र आदि की शालाओं में रहने वालों द्वारा आभीरी अथवा शाबरी, तथा वनचरों द्वारा द्राविड़ी भाषा बोली जाती थी। (नाट्यशास्त्र १७.५३-६)
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