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उदिठ न प्रमजे'अ, धमु सुचरिद चरि। धम-चरि सुहु शै'अदि, अस्वि लोकि परम यि॥
- अप्रमदुवग्ग ११०॥ - उठो, प्रमाद मत करो। धर्म का आचरण करो। धर्म का आचरण करने वाला इहलोक और परलोक में सुख-शान्ति से रहता है।
अरोग परम लभ, सदुठि परम धण। विश्पश परम मित्र, निवण परमो सुह॥ सुह वग्ग १६२॥
आरोग्य परम लाभ है, संतोष परम धन है, विश्वास परम मित्र है और निर्वाण परम सुख है। ५. अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत
प्रथम युग की प्राकृतों में अश्वघोष के नाटकों का महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि प्राकृत भाषा के विकास की परम्परा इन नाटकों की भाषा में सुरक्षित है। विभिन्न पात्रों द्वारा सम्वादों के रूप में मागधी, शौरसेनी और अर्धमागधी इन तीनों भाषाओं का सफल प्रयोग यहां देखने को मिलता है। विभिन्न प्राचीन शिलालेखों में भी अश्वघोष की भाषा के संकेत देखे जा सकते हैं। अश्वघोष के शारद्वतीपुत्र प्रकरण में प्रयुक्त प्राकृत जैनसूत्रों की प्राकृत से भिन्न है, जो इस भाषा के विकास को सूचित करती है।
संस्कृत नाटकों में प्राकृत प्रथमयुगीन प्राकृत भाषा प्रयोग की दृष्टि से विभिन्न रूप धारण कर चुकी थी। वस्तुतः प्राकृत भाषा के विकास का क्रम इन नाटकों की भाषा में सुरक्षित है। क्योंकि प्रयोग की दृष्टि से मागधी, शौरसेनी और अर्धमागधी - इन तीनों भाषाओं का संगम इनमें देखने को मिलता है।
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