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आधारित थीं। आगे चलकर जैसे-जैसे जनसाधारण ने व्याकरण के कठिन नियमों से नियंत्रित संस्कृत की दुरूहता का अनुभव किया, वैसे-वैसे राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों की समन्वय स्वरूप प्राकृत बोलियाँ पहले तो महावीर और बुद्ध के जन-सामान्य-उद्बोधक धर्मोपदेश की महत्त्वपूर्ण कड़ियों के रूप में और तत्पश्चात् कालक्रम से सामान्य साहित्यिक भाषा के रूप में पुष्पित और पल्लवित होती गईं। साहित्यिक प्राकृतों का आदर्श-स्तर
वस्तुतः भाषा शब्द का प्रयोग कालान्तर में साहित्यिक भाषा के लिए किया गया। साहित्यिक प्राकृतों का भी एक आदर्श स्तर रहा है, जिसके प्रमाण प्राचीन अभिलेखों में मिलते हैं। यद्यपि प्राचीन समय में प्राकृत जनभाषा के रूप में प्रचलित थी, जो सिन्ध से लेकर मध्यदेश तथा मगध तक बोली जाती थी, किन्तु समय-समय पर अन्य भाषाओं का प्रभाव भी इस पर अपना पानी चढ़ाता रहा। . प्रायः सभी प्राकृत भाषाओं में अत्यन्त उत्तम तथा उच्च कोटि का साहित्य निर्मित हुआ है। लोक में प्रचलित भाषा में निर्मित साहित्य नागरिकों तथा विद्वानों के लिए भले ही अरुचिकर तथा स्वारस्य रहित प्रतीत हो, पर लोक में वही सुरुचिपूर्ण और रमणीय होता है। किसी भी देश अथवा जाति की कुछ विशिष्ट रुचियां अथवा प्रवृत्तियां होती हैं उनके लिए किसी कारण विशेष का ज्ञान करना दुष्कर होता है।
वर्तमान अंग्रेजी भाषा में त, द, छ, झ, ञ, ङ, ढ, ढ, ण, ध्वनियां नहीं हैं, फिर भी प्रयोग तथा व्यवहार की दृष्टि से भाषा में किसी भी प्रकार का व्यवधान नहीं होता। इसी प्रकार प्राकृत भाषाओं में सर्वत्र न् ध्वनि के स्थान पर ण् का होना, ङ् की ध्वनि का अभाव, ट् को ड .. होना, आदि य का सर्वत्र ज होना आदि ऐसी प्रवृत्तियां हैं जो उस समय
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