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चूँकि प्राकृत की व्याकरण प्राकृत भाषा में नहीं अपितु संस्कृत भाषा में ही लिखे जाने की परम्परा रही है। इसीलिए प्राकृत के सभी वैयाकरणों में प्राकृत भाषा में न लिखकर संस्कृत भाषा में ही लिखे हैं और संस्कृत व्याकरण के आधार पर प्राकृत की व्याकरण भी समझाई है । यह सब संस्कृत और प्राकृत भाषाओं एवं इनके भाषा-भाषी जनों की अत्यन्त प्राचीन काल से ही परस्पर एक-दूसरे के प्रति निर्भरता, मैत्री जैसी अनेक सौहार्दपूर्ण भावनाओं का द्योतन करती हैं।
उदाहरण के लिये प्राकृत व्याकरणों में संस्कृत 'वृषभः' शब्द से प्राकृत वसहो या उसहो शब्द की सिद्धि की है। इसी तरह से कौमुदी से कोमुई, सौन्दर्यं से सुन्दरं या सुंदरिअं की सिद्धि की गई है।
वस्तुतः समस्त प्राकृत भाषाओं में संस्कृत भाषा के अनेक शब्द उसी रूप में गृहीत हुए हैं। इन शब्दों को " तत्सम " कहते हैं। ये तत्सम शब्द यद्यपि प्रथम-स्तर की प्राकृत भाषाओं से ही संस्कृत में प्रचलित एवं संरक्षित हुए, तथापि यह स्वीकार करना ही होगा कि ये शब्द परवर्ती काल की प्राकृत भाषाओं में जो अपरिवर्तित रूप से व्यवहृत हुए हैं, वे संस्कृत साहित्य के प्रभाव के कारण ही ।
इस तरह हमें किसी भी ग्रन्थकर्ता के पूरे कथन के आधार पर अर्थ निर्धारण करना चाहिये, न कि किसी एक वाक्य के आधार पर। अतः हमें पूर्वोक्त भ्रम का निवारण अवश्य कर लेना चाहिये, ताकि अर्थ का अनर्थ न हो सके।
इस प्रकार भाषाविज्ञान की दृष्टि से संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति नहीं माना जा सकता, हां, संस्कृत ने प्राकृत को प्रभावित अवश्य किया है। वस्तुतः जैसे-जैसे आर्य लोग पश्चिम से पूर्व और दक्षिण की ओर अग्रसर हुए, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में उन्हें बहुसंख्यक बोलियों को आत्मसात् करना पड़ा जिसके परिणामस्वरूप प्राकृत बोलियों का विकास होता गया। ये बोलियाँ जनसामान्य द्वारा बोली जाने वाली भाषा पर
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