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की प्रवृत्ति तथा रुचि का निर्देश करती हैं और इनके अभाव में भी भाषा का मौन्दर्य विकृत नहीं होता।
___प्राकृत भाषाओं के अम्युदय-काल में नयनम् को ‘णअण' कहना, नगरम् को ‘णअर', नदी को ‘णई', निद्रा को 'णिद्दा' कहना ही मधुर तथा सरल प्रतीत होता था। यज्ञ का रूप ‘जण्णो' प्रचलित था। युधिष्ठिर का 'जहिट्ठिलो' रूप इस समय अनभ्यास के कारण भले ही सुन्दर न प्रतीत हो पर प्राकृत भाषाओं में यही रूप मधुर तथा रुचि पूर्ण था। ....
इस प्रकार समय-समय पर प्रत्येक देश तथा काल में भाषाओं के रूप विधानों में इसी प्रकार के परिवर्तन होते रहे हैं। ये परिवर्तन, लोक रुचि को ही प्रकट करते हैं क्योंकि यदि लोक इनको स्वीकार न करे तो इनका प्रचलन ही नहीं हो सकता। तदनुसार इनका साहित्यिक स्तर भी विकसित होता रहा है और उन प्राकृतों का प्रभाव भी बढ़ता रहा। इसी आधार पर किसी कवि ने कहा भी है - .
"अहो तत्प्राकृतं हारि प्रिया वक्त्रेन्दु सुन्दरम्। सूक्तयो यत्न राजन्ते सुधा निष्यन्दनिर्झराः" ..
अर्थात् स्नेहमयी प्रियतमा के चन्द्र रूपी मुख के समान वह प्राकृत भाषा आकर्षक तथा मनोहर है, जिस प्राकृत भाषा में अमृत के प्रवाह के निर्झरों के समान सुन्दर सूक्तियां प्रकाशित रहती हैं। इस प्रकार प्राकृत भाषाओं में भी ललित एवं मधुर साहित्य की न्यूनता नहीं है। अतः इन भाषाओं का पठन-पाठन भी सहृदय भावुकों के लिये वांछित है।
वस्तुतः मध्ययुगीन भारतीय आर्यभाषाओं का युग एक अत्यन्त समृद्ध युग है। इस युग में सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्रों में जितनी उन्नति हुई उतनी संभवतः अन्य किसी युग में नहीं हुई। इस सबमें प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं और इनके साहित्य का बहुमूल्य योगदान रहा है।
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