________________
उपलब्ध प्राकृत साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है कि वर्तमान समय में भी अनेक मुनि, आचार्य एवं विद्वान् प्राकृत भाषा की विविध विधाओं में तथा इससे सम्बद्ध विषयों पर हिन्दी, अंग्रेजी तथा देश
की प्रायः सभी प्रादेशिक भाषाओं में रचनायें लिख रहे हैं। अतः यह • भाषा एवं इसका विशाल प्राकृत साहित्य सार्वजनीन और सार्वभौमिक होते हुए हमारे राष्ट्र की बहुमूल्य धरोहर है। प्राकृत भाषा के मूल दो भेद -
१. प्रथम स्तरीय प्राकृत - इसके कथ्य और साहित्य निबद्धये दो भेद हैं। कथ्य भाषा प्राचीन काल में जनबोली के रूप में विद्यमान । थी। इसका साहित्य नहीं मिलता है, किन्तु उसकी झलक छान्दस साहित्य में मिलती है। इसे प्रथम स्तरीय प्राकृत कहते हैं।
२. द्वितीय स्तरीय प्राकृत भाषा अर्थात् साहित्य निबद्ध भाषा को तीन युगों में बांटा गया है - १. प्रथम युग (६०० BC से २०० AD), २. मध्य युग (२०० AD से ६०० AD), ३. उत्तर अर्वाचीन युग या अपभ्रंश युग (६०० AD से १२०० AD)। .
१. प्रथम युगीन प्राकृतों के अन्तर्गत - १. शिलालेखी प्राकृत, २. धम्मपद की प्राकृत, ३. आर्ष-पालि, ४. प्राचीन जैन सूत्रों की प्राकृत, ५. अश्वघोष के नाटकों की प्राकृत हैं। इनका काल ईसा पूर्व छठी शती से द्वितीय शताब्दी है।
२. मध्य युगीन प्राकृतों के अन्तर्गत - १. भास और कालिदास के नाटकों की प्राकृत, २. गीतिकाव्यों और महाकाव्यों की प्राकृत, ३. परवर्ती जैन काव्य (साहित्य) की प्राकृत, ४. प्राकृत वैयाकरणों द्वारा निरूपित प्राकृतें, ५. बृहत्कथा की पैशाची प्राकृत हैं। इनका काल द्वितीय से छठी शती तक है।
३. उत्तर अर्वाचीन युग का अपभ्रंश युग - ६०० ई. से १२०० ई. तक। इसमें विभिन्न प्रदेश की प्राकृत भाषाएं आती हैं। जैसे मागधी, अर्धमागधी, महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची आदि।
१०
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org