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(परुषाः संस्कृतबन्धाः प्राकृतबन्धोऽपि भवति सुकुमारः।
पुरुषमहिलानां यावदिहान्तरं तावदेतेषाम्।। . अर्थात्, संस्कृतबद्ध काव्य कठोर-कर्कश होते हैं, किन्तु प्राकृतबद्ध काव्य ललित और कोमल। यानी, परुषता संस्कृत की औ सुकुमारता प्राकृत की मौलिक विशेषता है। दोनों में उतना ही अन्तर है जितना पुरुष और स्त्री में अर्थात् संस्कृत भाषा पुरुष के समान कठोर ते
प्राकृत भाषा स्त्रियों के समाने कोमल/सुकुमार होती है। .... मुनि जयवल्लह (जयवल्लभ) ने भी अपने प्रसिद्ध प्राकृत काळ ग्रन्थ 'वज्जालग्ग' में प्राकृत की संस्कृतातिशायी श्लाघा करते हुए कह है - ललिए महुरक्खरए जुवईजणवल्लहे ससिंगारे।
सन्ते पाइअकव्वे को सक्कइ सक्कों पढिउं॥ २९॥ (ललिते मधुराक्षरे युवतिजनवल्लभे सशृंगारे।
सति प्राकृतकाव्ये कः शक्नोति संस्कृतं पठितुम्॥) ___ अर्थात् ललित, मधुर अक्षरों से युक्त युवतियों के लिए मनोरम एवं प्रीतिकर तथा श्रृंगार रस से ओतप्रोत प्राकृत-काव्य के रहते हुए कौन संस्कृत-काव्य पढ़ना चाहेगा? .
प्राकृत भाषाओं की लोकप्रियता और माधुर्य का सहज ज्ञान हमें संस्कृत के लाक्षणिक ग्रन्थों में उदाहरण के रूप में उद्धृत प्राकृत गाथाओं एवं संस्कृत भाषा के समृद्ध नाट्य साहित्य में उपलब्ध विविध प्राकृत भाषाओं के अधिकांश संवादों से हो जाता है। मम्मट (काव्यप्रकाशकार) जैसे अनेक संस्कृत के अलंकारशास्त्रियों ने भी सहजता और मधुरता के कारण प्राकृत की गाथाओं को अपने अलंकार शास्त्रों में उदाहरणों, दृष्टान्तों के रूप में अपनाकर इन्हें सुरक्षित रखा है।
इस तरह प्राकृत भाषा केवल एक भाषा-विशेष ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय संस्कृति का दर्पण तो है ही, साथ ही अपने देश के क्षेत्र या प्रदेश (देश) विशेष की अधिकांश भाषाओं का मूलस्रोत एवं
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