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________________ उस समय के लोग यह घोषणा करने में बहुत ही गौरव का अनुभव करते थे कि -... . अमिअं पाउअकव्वं पढिअं सोउं अ जे ण आणन्ति। कामस्स तत्ततन्तिं कुणन्ति ते कहंण लज्जन्ति॥गा०स० १/२॥ (अमृतं प्राकृतकाव्यं पठितुं श्रोतुं च ये न जानन्ति। कामस्य तत्त्वचिन्तां कुर्वन्ति ते कथं न लज्जन्ते) अर्थात्, अमृतभूत 'प्राकृत-काव्य' को जो न पढ़ना जानते हैं, न सुनना ही, उन्हें काम की तत्त्वचिन्ता (वार्ता) करते लज्जा क्यों नहीं आती? यह उद्घोषणा केवल प्राकृत के पण्डितों की ही नहीं थी, अपितु संस्कृत के शीर्षस्थ विद्वानों ने की थी और वे स्वयं प्राकृत भाषा के उत्कृष्ट प्रशंसक भी थे। ___संस्कृत के यायावर महाकवि राजशेखर को कौन संस्कृतज्ञ नहीं जानता, जिनके 'बालरामायण' (दस अंकों का विशाल-नाटक), 'विद्धशालभंजिका' (चार अंकों की श्रेष्ठ-नाटिका) आदि रूपक-काव्य संस्कृत के रूप को बड़ी सुष्ठुता एवं सुचारुता से, उभारते, सँवारते हैं और जिनकी प्रख्यात एवं अद्वितीय काव्यशास्त्रीय संस्कृत-कृति 'काव्यमीमांसा' पण्डित समाज में साहित्यशास्त्र की रचना प्रक्रिया एवं रसन व्यापार की अद्भुत व्याख्या प्रस्तुत करती है। . ऐसे महाकवि राजशेखर ने भी उस समय प्राकृत के समक्ष संस्कृत को गौण ठहरा दिया और अपने प्रसिद्ध प्राकृत सट्टक ‘कर्पूरमंजरी' (सम्पूर्ण प्राकृत भाषा में लिखित नाटकों - उपरूपकों की सट्टक नामक एक प्रसिद्ध विधा में उस महाकवि ने स्पष्ट शब्दों में प्राणोन्मेषिणी प्राकृत-भाषा का समर्थन करते हुए कहा - . परुसा सक्कअ बन्धा पाउअ बन्थोवि होउ सुउमारो। पुरुसमहिलाणं जेत्तिअमिहन्तरं तेत्तिअमिमाणं॥ कर्पूरमंजरी॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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