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54 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
बोक्कशालियकुल - बुनकरकुल। साथ ही यह भी बताया गया है कि जो कुल अनिन्दित हैं, अजुगुप्सित हैं उन्हीं में जाना चाहिए; निन्दित व जुगुप्सित कुलों में नहीं जाना चाहिए। वृत्तिकार के कथनानुसार चमार कुल अथवा दासकुल निन्दित माने जाते हैं। इस नियम द्वारा यह फलित होता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध की योजना के समय जैनधर्म में कुल के आधार पर उच्चकुल एवं नीचकुल की भावना को स्थान मिला हो। इसके पूर्व जैन प्रवचन में इस भावना की गंध तक नहीं मिलती। जहाँ खुद चाण्डाल के मुनि बनने के उल्लेख हैं वहाँ नीचकुल अथवा गर्हितकुल की कल्पना ही कैसे हो सकती है?
उत्सव के समय भिक्षा :- एक जगह खान-पान के प्रसंग से जिन विशेष उत्सवों के नामों का उल्लेख किया गया है वे ये है : इन्द्रगह, रकंदाह, रूद्रामह, मुकुन्द्रमह, भूतमह, यक्षमह, नागमह, स्तूपमह, चैत्यमह, वृक्षमह, गिरिमह, कूपमह, नदीमह, सरोवरमह, सागरमह, आकरमह इत्यादि। इन उत्सवों पर उत्सव के निमित्त से आये हुए निमन्त्रित व्यक्तियों के भोजन कर लेने पर ही भिक्षु आहारप्राप्ति के लिए किसी के घर में जाय, उससे पूर्व नहीं। इतना ही नहीं, वह घर में जाकर गृहपति की स्त्री, बहन, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधु, दास, दासी, नोकर, नोकरानी से कहे कि जिन्हें जो देना था उन्हें वह दे देने के बाद जो बचा हो उसमें से मुझे भिक्षा दो। इस नियम का प्रयोजन यही है कि किसी के भोजन में अन्तराल न पड़े।
संखडि अर्थात् सामूहिक भोज में भिक्षा के लिए जाने का निषेध करते हुए कहा गया है कि इस प्रकार की भिक्षा अनेक दोषों की जननी है। जन्मोत्सव, नामकरणोत्सव आदि के प्रसंग पर होने वाले बृहद्भोज के निमित्त अनेक प्रकार की हिंसा होती है। ऐसे अवसर पर भिक्षा लेने जाने की स्थिति में साधुओं की सुविधा के लिए भी विशेष हिंसा की सम्भावना हो सकती है। अतः संखडि में भिक्षु भिक्षा के लिए न जाय। आगे सूत्रकार ने यह भी बताया है कि जिस दिशा में संखडि होती हो उस दिशा में भी भिक्षु को नहीं जाना चाहिए। संखडि कहाँ-कहाँ होती है? ग्राम, नगर, खेड, कर्बट, मडंब, पट्टण, आकर, द्रोणमुख, नैगम, आश्रम, संनिवेश व राजधानी- इन सब में संखडि होती है। संखडि में भिक्षा के लिए जाने से भयंकर
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