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52. : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
20. जे एगं नामे से बहु नामे, जे बहु : जो एक को झुकाता है वह बहुतों नामे से एगं नामे
को झुकता है और जो बहुतों को
झुकाता है वह एक को झुकाता है। 21. सव्वओ पमत्तस्स भयं : प्रमादी को चारों ओर से भय है,
अप्पमत्तस्स नत्थि भयं अप्रमादी को कोई भय नहीं। . 22. जंति वीरा महाजाणं : वीर पुरूष महायान की ओर जाते
23. कसेहि अप्पाणं : आत्मा को अर्थात् खुद को कस। 24. .जरेहि अप्पाणं
: आत्मा को अर्थात् खुद को जीर्ण
कर। 25. बहु दुक्खा हु जंतवो : सचमुच प्राणी बहुत दु:खी हैं। 26. तुमं सि नाम तं चेव जं हंतव्वं : तू जिसे हनने योग्य समझता है वह
ति मन्नसि . तू खूद ही है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध :- आचारांग के प्रथम श्रुस्तस्कन्ध की उपर्युक्त समीक्षा के ही समान द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भी समीक्षा आवश्यक है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का सामान्य परिचय पहले दिया जा चुका है। यह पाँच चूलिकाओं में विभक्त है जिसमें आचार –प्रकल्प अथवा निशीथ नामक पंचम चूलिका आचारांग से अलग होकर एक स्वतन्त्र ग्रंथ ही बन गई है। अतः वर्तमान द्वितीय श्रुतस्कन्ध में केवल चार चूलिकाएँ ही हैं। प्रथम चूलिका में सात प्रकरण हैं जिनमें से प्रथम प्रकरण आहारविषयक है। इस प्रकरण में कुछ विशेषता है जिसकी चर्चा करना आवश्यक है। ___ आहार :- जैन भिक्षु के लिए यह एक सामान्य नियम है कि अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम छोटे - बड़े जीवों से युक्त हो, काई से व्याप्त हो, गेंहू आदि के दानों के सहित हो, हरी वनस्पति आदि से मिश्रित हो, ठण्डे पानी से भिगोया हुआ हो, जीवयुक्त हो, रजवाला हो उसे भिक्षु स्वीकार न करे। कदाचित असावधानी से
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