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अप्पियवहा पियजीविणो
जीविकामा
7. सव्वेसि जीविअं पियं
8. जेण सिया तेण णो सिया
प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया 51
नहीं लगता, वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है, जीने की इच्छा है।
: सबको जीवन प्रिय है।
: जिसके द्वारा है उसके द्वारा नहीं है
अर्थात् जो अनुकूल है वह प्रतिकूल हो जाता है।
9. जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं : जैसा अन्दर है वैसा बाहर है और
तहा अंतो
जैसा बाहर है वैसा अन्दर है।
10. कामकामो खलु अयं पुरिसे
11. कासंकासेऽयं खलु पुरिसे
12. वेरं वड्ढइ अप्पणो 13. सुत्ता अमुणी मुणिणो सययं जागति
14. अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ 15. अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे
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: यह पुरूष सचमुच कामकामी है। : यह पुरूष " मैं करूंगा, मैं करूँगा " ऐसे ही करता रहता है।
: ऐसा पुरूष अपना वैर बढ़ाता है। : अमुनि सोये हुए हैं और मुनि सतत जाग्रत हैं।
: कर्महीन के व्यवहार नहीं होता । : हे धीर पुरूष ! प्रपंच के अग्रभाग व मूल को काट डाल
16. का अरह के आणंदे एत्थं पि
: क्या अरति और क्या आनन्द, दोनों में अनासक्त रहो।
. अग्गहे चरे 17. पुरिसा ! तुममेव तुमं मित्तं किं : हे पुरूष ! तू ही अपना मित्र है फिर . बहिया मित्तमिच्छसि बाह्य मित्र की इच्छा क्यों करता है?
18. पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झः हे पुरूष ! तु अपने आप को ही एवं दुक्खा पमोक्खसि निगृहीत कर । इस प्रकार तेरा दुःख
दूर होगा।
19. पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि : हे पुरूष ! सत्य को ही सम्यक् रूप
से समझ
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