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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 47 वे कई बार बंधन के हेतु बन जाते है। इसी प्रकार जो अनास्रव है अर्थात् बंधन के हेतु नहीं है वे कई बार अपरिस्रव अर्थात् बंधन के हेतु बन जाते हैं और जो बंधन के हेतु हैं वे कई बार बंधन के अहेतु बन जाते है। इन वाक्यों का गूढार्थ "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध - मोक्षयोः" सिद्धान्त के आधार पर समझा जा सकता है। बंधन व मुक्ति का कारण मन ही है। मन की विचित्रता के कारण ही जो हेतु बंधन का कारण होता है वही मुक्ति का भी कारण बन जाता है। इसी प्रकार मुक्ति का हेतु बंधन का कारण भी बन सकता है। उदाहरण के लिए एक ही पुस्तक किसी के लिए ज्ञानार्जन का कारण बनती है तो किसी के लिए क्लेश का, अथवा किसी समय विद्योपार्जन का हेतु बनती है तो किसी समय कलह का। तात्पर्य यह है कि चित्तशुद्धि अथवा अप्रमत्तता पूर्वक की जाने वाली क्रियाएँ ही अनास्रव अथवा परिस्रव का कारण बनती हैं। अशुद्ध चित्त अथवा प्रमादपूर्वक की गई क्रियाएँ आस्रव अथवा अपरिस्रव का कारण होती है। वर्णाभिलाषा :- "वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए" (आचारांग अ. - 2, सू. 155) का अर्थ इस प्रकार है : वर्ण का अभिलाषी लोक में किसी का भी आलंभन न करे। वर्ण अर्थात् प्रशंसा, यशकीर्ति। उसके आदेशी अर्थात् अभिलाषी को सारे संसार में किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए; किसी का भी भोग नहीं लेना चाहिए। इसी प्रकार असत्य, चौर्य आदि का भी आचारण नहीं करना चाहिए। यह एक अर्थ है। दूसरा अर्थ इस प्रकार है : संसार में कीर्ति अथवा प्रशंसा के लिए देहदमनादिक की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। तीसरा अर्थ यों है : लोक में वर्ण अर्थात् रूपसौन्दर्य के लिए किसी प्रकार का संस्कार - स्नानादि की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। । उपर्युक्त सूत्र में मुमुक्षुओं के लिए किसी प्रकार की हिसा न करने का विधान है। इसमें अपवाद का उल्लेख अथवा निर्देश नहीं है फिर भी वृत्तिकार कहते हैं। • कि प्रवचन की प्रभावना के लिये अर्थात् जैनशासन की कीर्ति के लिए कोई इस प्रकार का आरंभ - हिंसा कर सकता है : प्रवचनोद्भवनार्थ तु आरभते (आचरांगवृत्ति, पृ. 192)। वृत्तिकार का यह कथन कहाँ तक युक्तिसंगत है, यह विचारणीय है। मुनियों के उपकरण :- आचारांग में भिक्षु के वस्त्र के उपयोग एवं अनुपयोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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