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________________ 46 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा बौद्धपिटक ग्रन्थ सूत्तनिपात में "आमगंध" शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें तिष्य नामक तापस और भगवान् बुद्ध के बीच 'आमगंध' के विचार के विषय में एक संवाद है। यह तापस कंद, मूल, फल जो कुछ भी धर्मानुसार मिलता है उसके द्वारा अपना निर्वाह करता है एवं तापसधर्म का पालन करता है। उसे भगवान बुद्ध ने कहा कि हे तापस ! तू जो परप्रदत्त अथवा स्वोपार्जित कंद आदि ग्रहण करता है वह आमगंध है - अमेध्यवस्तु - अपवित्रपदार्थ है। यह सुनकर तिष्य ने बुद्ध से कहा - हे ब्रह्मबन्धु ! तू स्वयं सुसंकृत - अच्छी तरह से पकाये हुए पक्षियों के मांस से युक्त चावल का भोजन करने वाला है और मैं कंद आदि खाने वाला हूँ फिर भी तू मुझे तो आमगंधभोजी कहता है और अपने आपको निरामगंधभोजी। यह कैसे ? इसका उत्तर देते हुए बुद्ध कहते हैं कि प्राणघात, वध, छेद, चोरी असत्य, वंचना, लूट, व्याभिचार आदि अनाचार आमगंध है, मांसभोजन आमगंध नहीं। असंयम जिव्हालोलुपता, अपवित्र आचरण, नास्तिकता, विषमता तथा अविनय आमगंध है, मांसाहार आगमंध नहीं। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में समस्त दोषों - आंतरिक व बाह्य दोषों को आमगंध कहा गया है। आचारांग में प्रयुक्त “आमगंध" का अर्थ आंतरिक दोष तो है ही, साथ ही मांसाहार भी है। जैन भिक्षुओं के लिये मांसाहार के त्याग का विधान है। "सव्वामगंध परिन्नाय" लिखने का वास्तविक अर्थ यही है कि बाह्य व आंतरिक सब प्रकार का आमगंध हेय है अर्थात बाह्य आमगंध-मांसादि एवं आन्तरिक आमगंधआभ्यन्तरिक दोष ये दोनों ही त्याज्य है। आस्रव व परिस्रव :- जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा; जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा" आचारांग (अ.4, उ 2) के इस वाक्य का अर्थ समझने के लिये आस्रव व परिस्रव का अर्थ जानना जरूरी है। आस्रव शब्द "बंधन के हेतु" के अर्थ में और परिस्रव शब्द "बंधन के नाश के हेतु" के अर्थ में जैन व बौद्ध परिभाषा में रूढ़ है। अतः "जे आसवा ...... ........" का अर्थ यह हुआ कि जो आस्रव है अर्थात् बंधन के हेतु हैं वे कई बार परिस्रव अर्थात् बंधन के नाश के हेतु बन जाते हैं और जो बंधन के नाश के हेतु हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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