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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 45 गृहस्था दुव्वसु अर्थात् मुक्तिगमन के अयोग्य मुनि - अपवित्र मुनि-आचारहीन मुनि। वेद :- वेयवं - वेदवान् और वेयवी - वेदवित् इन दोनों शब्दों का प्रयोग आचारांग में भिन्न - भिन्न अध्ययनों में हुआ है। चूर्णिकार ने इनका विवेचन करते हुए लिखा है :- "वेतिज्जइ जेण स वेदो तं वेदयति इति वेदवि" (आचारांग - चूर्णि, पृ. 152) "वदवी -तित्थगर एवं कित्तयति विवेगं, दुवालसगं वा प्रवचनं वेदो तं जे वेदयति स वेदवी" (वही पृ. 185)। इन अवतरणों में चूर्णिकार ने तीर्थंकर को वेदवी - वेदवित् कहा है। जिससे वेदन हो अर्थात् ज्ञान हो वह वेद है। इसीलिए जैन सूत्रों को अर्थात् द्वादशांग प्रवचन को वेद कहा गया है। नियुक्तिकार ने आचारांग को वेदरूप बताया है। वृत्तिकार ने भी इस कथन का समर्थन किया है एवं आचारांगादि आगमों को वेद तथा तीर्थंकरों, गणधरों एवं चतुर्दशपूर्वियों को वेदवित् कहा है। इस प्रकार जैन परम्परा में ऋग्वेदादि को हिंसाचारप्रधान होने के कारण वेद न मानते हुए अहिंसाचारप्रधान आचारांगादि को वेद माना गया है। वसुदेवहिंडी (प्रथम भाग, पृ. 183-193) में इसी प्रकार के ग्रन्थों को आर्यवेद कहा गया है। वस्तुतः देखा जाय तो वेद की प्रतिष्ठा से प्रभावित होकर ही अपने शास्त्र को वेद नाम दिया गया है, यही मानना उचित है। ___आमगंध :- आचारांग के "सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधे परिव्वए' (2, 5) वाक्य में यह निर्देश किया गया है कि मुनि को सर्व आमगंधों को जानकर उनका त्याग करना चाहिए एवं निरामगंध ही विचरण करना चाहिए। चूर्णिकार अथवा वृत्तिकार ने आमगंध का व्युत्पत्तिपूर्वक अर्थ नहीं बताया है। उन्होंने केवल यही कहा है कि "आमगंध" शब्द आहार से सम्बन्धित दोष का सूचक है। जो आहार उद्गम दोष से दूषित हो अथवा शुद्धि की दृष्टि से दोषयुक्त हो वह आमगंध कहा जाता है। सामान्यतया "आम" का अर्थ होता है कच्चा और गंध का अर्थ होता है वास। जिसकी गंध आम हो वह आमगंध है। इस दृष्टि से जो आहारादि परिपक्व न हो अर्थात् जिसमें कच्चे की गन्ध मालूम होती हो वह आमगंध में समाविष्ट होता है। जैन भिक्षुओं के लिए इस प्रकार का आहार त्याज्य है। लक्षणा से "आमगंध' शब्द इसी प्रकार के आहारादि सम्बन्धी अन्य दोषों का भी सूचक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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