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44 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
"जाणइ" पद का ही प्रयोग किया जाता, "पासइ" पद का नहीं। नंदी में एतद्विषयक पाठ इस प्रकार है :
२ सालश
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दव्वओ णं उज्जुमई णं अंणते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ, ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए .......... वितिमिरतराए जाणइ पासइ। खेत्तओ णं उज्जुमई जहन्नेणं ......... उक्कोसेणं मणोंगए भावे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई विसुद्धतरं ............ जाणइ पासइ। कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं............ उक्कोसेणं पि जाणइ पासइ तं चेव विउलमई विसुद्धतरागं............... जाणइ पासइ। भावओ णं उज्जुमई ......... जाणइ पासइ। तं चेव विउलमई विसुद्धतरागं जाणइ पासइ।
इसी प्रकार श्रुतज्ञानी के सम्बन्ध में भी नंदीसूत्र में "सुअणाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ" ऐसा पाठ आता है। श्रुतज्ञान भी ज्ञान ही है, दर्शन नहीं। फिर भी उसके लिए "जाणइ" व "पासइ'' दोनों का प्रयोग किया गया है।
यह सब देखते हुए यही मानना विशेष उचित है कि "जाणइ पासइ" का प्रयोग केवल एक भाषाशैली है। इसके आधार पर ज्ञान व दर्शन के क्रम-अक्रम का विचार करना युक्तियुक्त नहीं। ___ वसुपद :- आचारांग में वसु, अणुवसु, वसुमंत, दुव्वसु आदि वसु पद वाले शब्दों का प्रयोग हुआ है। "वसु" शब्द अवेस्ता, वेद एवं उपनिषद् में भी मिलता है। इससे मालूम होता है कि यह शब्द बहुत प्राचीन है। अवेस्ता में इस शब्द का प्रयोग "पवित्र'' के अर्थ में हुआ है। वहाँ इसका उच्चारण “वसु" न होकर "वोहू" है। वेद व उपनिषद् में इसका उच्चारण "वसु" के रूप में ही है। उपनिषद में प्रयुक्त “वसु" शब्द हंस अर्थात् पवित्र आत्मा का द्योतक है : हंस शुचिवद् वसुः (कठोपनिषद्, वल्ली 5, श्लोक 2, छान्दोग्योपनिषद्, खण्ड 16, श्लोक 1-2) बाद में इस शब्द का प्रयोग वसु नामक आठ देवों अथवा धन के अर्थ में होने लगा। आचारांग में इस शब्द का प्रयोग आत्मार्थी पवित्र मुनि एवं आत्मार्थी पवित्र गृहस्थ के अर्थ में हुआ है। वसु अर्थात् मुनि। अणुवसु अर्थात् छोटा मुनि-आत्मार्थी पवित्र
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