________________
प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 43
बोलने की एक शैली के प्रतीक हैं। कहने वाले के मन में ज्ञान व दर्शन के क्रम अक्रम का कोई विचार नहीं रहा है। जैसे अन्यत्र "पन्नवेमि परूवेमि भासेमि" आदि क्रियापदों का समानार्थ में प्रयोग हुआ है वैसे ही यहाँ भी "जाणइ-पासइ" रूप युगल क्रियापद समानार्थ में प्रयुक्त हुए हैं। जो मनुष्य केवली नहीं है अर्थात् छद्मस्थ हैं उसके लिए भी "जाणइ पासइ" अथवा "अजाणओ अपासओ" का प्रयोग होता है। दर्शन -ज्ञान के क्रम के अनुसार तो पहले "पासदू" अथवा "अपासओ"
और बाद में "जाणइ" अथवा "अजाणओ" का प्रयोग होना चाहिए किन्तु ये वचन इस प्रकार के किसी क्रम को दृष्टि में रखकर नहीं कहे गये हैं। यह तो बोलने की एक शैली मात्र है। बौद्ध ग्रन्थों में भी इस शैली का प्रयोग दिखाई देता है। मजिझमनिकाय के सव्वासवसुत्त में भगवान बुद्ध के मुख से ये शब्द कहलाये गये हैं : "जानतो अहं भिक्खवे पस्सतो आसवानं खयं वदामि, नो अजानतो नो अपस्सतो" अर्थात् हे भिक्षुओं ! मैं जानता हुआ - देखता हुआ आम्रवों के क्षय की बात करता हूँ, नहीं जानता हुआ- नहीं देखता हुआ नहीं। इसी प्रकार का प्रयोग भगवती सूत्र में भी मिलता है : "जे इमे भंते! बेइंदिया .............. पंचिंदिया जीवा एएसि आणाम वा पाणामं वा उस्सासं वा निस्सासं वा जाणामो पासामो, जे इमे पुढविकाइया ............... एगिदिया जीवा एएसि णं आणामं वा ..... ........नीसासं वा न याणामो न पासामो" (श 2, उ. 1) - द्वीन्द्रियादिक जीव
जो श्वासोच्छ्वास आदि लेते हैं वह हम जानते हैं, देखते हैं किन्तु एकेन्द्रिय जीव .. जो श्वास आदि लेते हैं वह हम नहीं जानते, नहीं देखते।
ज्ञान के स्वरूप की परिभाषा के अनुसार दर्शन सामान्य, उपयोग सामान्य, बोध अथवा निराकार प्रतीति है, जबकि ज्ञान विशेष उपयोग, विशेष बोध अथवा साकार प्रतीति है। मनःपर्याय - उपयोग ज्ञानरूप ही माना जाता है, दर्शनरूप नहीं, क्योंकि उससे विशेष का ही बोध होता है, सामान्य का नहीं। ऐसा होते हुए भी नंदीसूत्र में ऋजुमति एवं विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी के लिए "जाणइ'' व "पासइ'' दोनों पदों का प्रयोग हुआ है। यदि "जाइण" पद केवल ज्ञान का ही द्योतक होता और "पासइ" पद केवल दर्शन का ही प्रतीक होता तो मनःपर्ययज्ञानी के लिए केवल
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org