________________
36 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
आदावन्ते च मध्ये च जनोऽस्मिन्न विद्यते।
येनेदं सततं व्याप्तं स देशो विजनः स्मृतः।। यह पद्य पूर्ण आत्मा अथवा सिद्ध आत्मा के स्वरूप के विषय में है।
आचारांग के उपर्युक्त वाक्य के बाद ही दूसरा वाक्य है "स न छिज्जइ न भिज्जइ न डज्झइ न हम्मइ कंचणं सव्वलोए" अर्थात् सर्वलोक में किसी के द्वारा आत्मा का छेदन नहीं होता, भेदन नहीं होता, दहन नहीं होता, हनन नहीं होता। इससे मिलते हुए वाक्य उपनिषद् तथा भगवद्गीता में इस प्रकार हैं :
न जायते न म्रियते न मुह्यति न भिद्यते न दह्यते। न छिद्यते न कम्पते न कुप्यते सर्वदहनोऽयमात्मा।। - सुबालोपनिषद्, नवम खण्ड ; र्दशाद्यष्टोत्तरशतोपनिषद् पृ. 210.
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽमक्लेद्योऽशोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।
- भगवद्गीता, अ. 2, श्लो. 23 "जस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कओ सिआ।। अर्थात् जिसका आगा व पीछा नहीं है उसका बीच कैसे हो सकता है? आचारांग का यह वाक्य भी आत्मविषयक है। इससे मिलता-जुलता वाक्य गौड़पादकारिका।' में इस प्रकार है : आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा।
जन्मरणातीत, नित्यमुक्त आत्मा का स्वरूप बताते हुए सूत्रकार कहते हैं :सव्वे सरा नियट्टति। तक्का जत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गाहिया। ओए, अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने - से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरंसे, न परिमंडले, न किण्हे, न नीले, न लोहिए, न हालिद्दे, न सुक्किले, न सुरभिगंधे, न दुरभिगंधे, न तित्ते, न कडुए, न कसाए, न अंबिले, न महुरे, न कक्खडे, न मउए, न गुरूए, न लहुए, न सोए, न उण्हे, न निद्धे, न लुक्खे, न काउ, न रूहे, न संगे, न इत्थी, न मुरिसे, न अन्नहा, परिन्ने, सन्ने, उवमा न विज्जइ। अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि, से न सद्दे, न
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org