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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 35
के पूछने पर झूठ बोलने तक के लिए तैयार हो जाते थे। प्रस्तुत सूत्र में ऐसा एक उल्लेख उपलब्ध है जो इस प्रकार है :- "बहुक्रोधी, बहुमानी, बहुकपटी, बहुलोभी", नट की भाँति विविध ढंग से व्यवहार करने वाला, शठवत्, विविध संकल्प वाला, आस्रवों में आसक्त, मुँह से उत्थित वाद करने वाला, "मुझे कोई देख न ले " इस प्रकार के भय से उपकृत्य करने वाला सतत् मूढ़ धर्म को नहीं जानता। जो चतुर आत्मार्थी है वह कभी अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करता। कदाचित् कामावेश में अब्रह्मचर्य का सेवन हो जाय तो उसका अपलाप करना अर्थात् आचार्य के सामने उसे स्वीकार न करना महान मूर्खता है'' इस प्रकार के उल्लेख यही बताते हैं कि उग्र तप, उग्र संयम, उग्र ब्रह्मचर्य के युग में भी कोई - कोई ऐसे निकल आते हैं। यह वासना व कषाय की विचित्रता है।
जैन श्रमणों का अन्य श्रमणों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध रहता था, यह भी जानने योग्य है। इस विषय में आठवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रारम्भ में ही बताया गया है कि समनोज्ञ (समान आचार-विचार वाला) भिक्षु असमनोज्ञ (भिन्न आचार-विचार वाला) को भोजन, पानी, वस्त्र, पात्र, कम्बल व पादपूछण न दे, इसके लिए उसे निमन्त्रित भी न करे, न उसकी आदरपूर्वक सेवा ही करे। इसी प्रकार असमनोज्ञ से ये वस्तुएँ भी नहीं लें, न उसके निमन्त्रण को स्वीकार करे और न उससे अपनी सेवा ही करावें। जैन श्रमणों में अन्य श्रमणों के संसर्ग से किसी प्रकार की आचर- विचारविषयक शिथिलता न आ जाय, इसी दृष्टि से यह विधान है। इसके पीछे किसी प्रकार की द्वेष-बुद्धि अथवा निन्दा भाव नहीं है। - आचारांग के वचनों से मिलते वचन :- आचारांग के कुछ वचन अन्य शास्त्रों से मिलते -जुलते हैं। आचारांग में एक वाक्य है "दोहिं वि अंतेहि अदिस्समाणे"17 - अर्थात् जो दोनों अन्तों द्वारा दृश्यमान हैं अर्थात् जिसका पूर्वान्त-आदि नहीं है व पश्चिमान्त-अन्त भी नहीं है। इस प्रकार जो (आत्मा) पूर्वान्त व पश्चिमान्त में दिखाई नहीं देता। इसी से मिलता हुआ वाक्य तेजोबिन्दू उपनिषद् के प्रथम अध्ययन के तेईसवें श्लोक में इस प्रकार है :
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