SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 34: अंग साहित्य : मनन और मीमांसा विमोह नामक आठवें अध्ययन में कहा गया है कि ये वादी आलंभार्थी हैं, प्राणियों का हनन करने वाले हैं, हनन कराने वाले हैं, हनन करने वालों का समर्थन करने वाले हैं, अदत्त को लेने वाले हैं। वे निम्न प्रकार से भिन्न - भिन्न वचन बोलते हैं : लोक है, लोक नहीं है, लोक अध्रुव है, लोक सादि है, लोक अनादि है, लोक सान्त है, लोक अनन्त है, सुकृत है, कल्याण है, पाप है, साधु है; असाधु है, सिद्धि है, असिद्धि है, नरक है, अनरक है। इसप्रकार की तत्वविषयक विप्रतिपत्ति वाले ये वादी अपने - अपने धर्म का प्रतिपादन करते हैं। सूत्रकार ने सब वादों को सामान्यतया यादृच्छिक (आकस्मिक) एवं हेतु शुन्य कहा है तथा किसी नाम विशेष का उल्लेख नहीं किया है। इनकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार व वृत्तिकार ने विशेषतः वैदिक शाखा के सांख्य आदि मतों का उल्लेख किया है एवं शाक्य अर्थात् बौद्ध भिक्षुओं के आचरण तथा उनकी अमुक मान्यताओं का निर्देश किया है। आचारांग की ही तरह दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में भी भगवान बुद्ध के समय के अनेक वादों का उल्लेख है। निर्ग्रन्थसमाज :- तत्कालीन निर्ग्रन्थसमाज के वातावरण पर भी आचारांग में प्रकाश डाला गया है। उस समय के निर्गन्थ सामान्यतया आचार सम्पन्न, विवेकी, तपस्वी एवं विनीतवृत्ति वाले ही होते थे, फिर भी कुछ ऐसे निर्ग्रन्थ भी थे जो वर्तमान काल के अविनीत शिष्यों की भाँति अपने हितैषी गुरू के सामने होने में भी नहीं हिचकिचाते। आचारांग के छठे अध्ययन के चौथे उद्देशक में इसी प्रकार के शिष्यों को उद्दिष्ट करके बताया गया है कि जिस प्रकार पक्षी के बच्चे को उसकी माता दाने दे देकर बड़ा करती है उसी प्रकार ज्ञानी पुरूष अपने शिष्यों को दिन - रात अध्ययन कराते हैं। शिष्य ज्ञान प्राप्त करने के बाद "उपशम" को त्याग कर अर्थात् शान्ति को छोड़कर ज्ञान देने वाले महापुरूषों के सामने कठोर भाषा का प्रयोग प्रारम्भ करते हैं। भगवान् महावीर के समय के उत्कृष्ट त्याग, तप व संयम के अनेक जीते-जागते आदर्शों की उपस्थिति में भी कुछ श्रमण तप-त्याग-अंगीकार करने के बाद भी उसमें स्थिर नहीं रह सकते थे एवं छिपे-छिपे दूषण सेवन करते थे। आचार्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy