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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 31 है। प्रारम्भ में ही अर्थात् प्रथम अध्ययन के प्रथम वाक्य में ही यह बताया गया है कि "इहं एगेसि नो सन्ना भवइ" अर्थात् इस संसार में कुछ लोगों को यह भान नहीं होता है कि मैं पूर्व से आया हुआ हूँ या दक्षिण से आया हुआ है अथवा किस दिशा या विदिशा से आया हुआ हूँ अथवा ऊपर से या नीचे से आया हुआ हूँ? इसी प्रकार "एगेसि नो नायं भवइ" अर्थात् कुछ को यह पता नहीं होता कि मेरी आत्मा औपपातिक है अथवा अनौपपातिक, मैं कौन था व इसके बाद क्या होऊँगा? इसके विषय में सामान्यतया विचार करने पर प्रतीत होगा कि यह बात साधारण जनता को लक्ष्य करके कही गई है। अर्थात् सामान्य लोगों को अपनी आत्मा का एवं उसके भावी का ज्ञान नहीं होता। विशेषरूप से विचार करने पर मालूम होगा कि यह उल्लेख तत्कालीन भगवान् बुद्ध के सत्कार्यवाद के विषय में है । बुद्ध निर्वाण को स्वीकार करते हैं, पूनर्जन्म को भी स्वीकार करते हैं। ऐसी अवस्था में वे आत्मा को न मानते हों ऐसा नहीं हो सकता। उनका आत्मविषयकं मत अनात्मवादी चार्वाक जैसा नहीं है। यदि उनका मत वैसा होता तो वे भोगपरायण बनते न कि त्यागपरायण । वे आत्मा को मानते अवश्य हैं किन्तु भिन्न प्रकार से । वे कहते हैं कि आत्मा के विषय में गमनागमन सम्बन्धी अर्थात् वह कहाँ से आई है, कहाँ जाएगी - इस प्रकार विचार करने से विचारक के आस्रव कम नहीं होते, उलटे नये आस्रव उत्पन्न होने लगते हैं। अतएव आत्मा के विषय में " वह कहाँ से आई है व कहाँ जाएगी।" इस प्रकार का विचार करने की आवश्यकता नहीं है । मज्झिमनिकाय के सव्वासव नामक द्वितीय सुत्त में भगवान् बुद्ध के वचनों का यह आशय स्पष्ट है। आचारांग में भी आगे (तृतीय अध्ययन के तृतीय उद्देशक में ) स्पष्ट बताया गया है कि "मैं कहाँ से आया हूँ? मैं कहाँ जाऊँगा?" इत्यादि विचारधाराओं को तथागत बुद्ध नहीं मानते।
भगवान महावीर के आत्मविषयक वचनों को उद्दिष्ट कर चूर्णिकार कहते है कि क्रियावादी मतों के एक सौ अस्सी भेद है। उनमें से कुछ आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं। कुछ मूर्त्त, कुछ अमूर्त्त, कुछ कर्त्ता, कुछ अकर्त्ता मानते हैं। कुछ श्यामाक परिमाण, कुछ तंडुलपरिमाण, कुछ अंगुष्ठपरिमाण मानते हैं। कुछ लोग आत्मा को
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