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32 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
दीपशिखा के समान क्षणिक मानते हैं। जो अक्रियावादी हैं वे आत्मा का अस्तित्व ही नहीं मानते । जो अज्ञानवादी - अज्ञानी हैं वे इस विषय में कोई विवाद ही नहीं करते। विनयवादी भी अज्ञानवादियों के ही समान हैं। उपनिषदों में आत्मा को श्यामाकपरिमाण, तण्डुलपरिमाण, अंगुष्ठपरिमाण आदि मानने के उल्लेख उपलब्ध है।
प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देश्यक में "अणगारा मो त्ति एगे वयमाणा'' अर्थात् "कुछ लोग कहते हैं कि हम अनगार है'' ऐसा वाक्य आता है। अपने को अनगार कहने वाले ये लोग पृथ्वी आदि आलंभन अर्थात् हिंसा करते हुए नहीं हिचकिचाते। ये अनगार कौन हैं? इसका स्पष्टीकरण करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि अनगार बौद्ध परम्परा के श्रमण हैं। ये लोग ग्राम आदि दान में स्वीकार करते हैं एवं ग्रामदान आदि स्वीकृत कर वहाँ की भूमि को ठीक करने के लिए हल, कुदाली आदि का प्रयोग करते हैं तथा पृथ्वी का व पृथ्वी में रहे हुए कीट-पतंगों का नाश करते हैं। इसी प्रकार कुछ अनगार ऐसे हैं जो स्नान आदि द्वारा जल की व जल में रहे हए जीवों की हिंसा करते हैं। स्नान नहीं करने वाले आजीविक तथा अन्य सरजस्क श्रमण स्नानादि प्रवृत्ति में निमित्त पानी की हिंसा नहीं करते किन्तु पीने के लिए तो करते ही है। बौद्ध श्रमण (तच्चणिया) नहाने व पीने दोनों के लिए पानी की हिंसा करते हैं। कुछ ब्राह्मण स्नान - पान के अतिरिक्त यज्ञ के बर्तनों व अन्य उपकरणों को धोने के लिए भी पानी की हिंसा करते हैं। इस प्रकार आजीविक श्रमण, सरजस्क श्रमण, बौद्ध श्रमण व ब्राह्मण श्रमण किसी न किसी कारण से पानी का आलंभन -हिंसा करते है। मूल सूत्र में यह बताया गया है कि "इहं च खलु भो अणगाराणं उदयं जीवा वियाहिया" अर्थात् ज्ञातपुत्रीय अनगारों के प्रवचन में ही जल को जीवरूप कहा गया है, "न अण्णेसि" (चूर्णि) अर्थात दूसरों के प्रवचन में नहीं। यहाँ "दूसरों" का अर्थ बौद्ध श्रमण समझना चाहिए। वैदिक परम्परा में तो जल को जीवरूप ही माना गया है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। केवल बौद्ध परम्परा ही ऐसी है जो पानी को जीवरूप नहीं मानती। इस विषय में मिलिंदपहा में स्पष्ट उल्लेख है कि पानी में जीव नहीं है -"सत्व नहीं है : न हि महाराज ! उदकं जीवति, नत्थि उदके जीवो वा सत्ते वा।"
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