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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 19 शब्द हैं वे साक्षात् भगवान के नहीं अपितु उनके हैं जिन्होंने भगवान् से सुने हैं। भगवान के खुद के शब्दों व श्रोता के शब्दों में शब्द के स्वरूप की दृष्टि से वस्तुतः बहुत अन्तर है। फिर भी ये शब्द भगवान् के ही हैं, इस प्रकार की छाप मन से किसी भी प्रकार नहीं मिट सकती। इसका कारण यह है कि शब्दयोजना भले ही श्रोता की हो, आशय तो भगवान् का ही है। __ अंगसूत्रों की वाचनाएँ :- ऐसी मान्यता है कि पहले भगवान् आशय प्रकट करते हैं, बाद में उनके गणधर अर्थात् प्रधान शिष्य उस आशय को अपनी-अपनी शैली में शब्दबद्ध करते हैं। भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे। वे भगवान् के आशय को अपनी-अपनी शैली व शब्दों में ग्रन्थित करने के विशेष अधिकारी थे। इससे फलित होता है कि एक गणधर की जो शैली व शब्दरचना हो वही दूसरे की हो भी और न भी हो, इसीलिए कल्पसूत्र में कहा गया है कि प्रत्येक गणधर की वाचना भिन्न-भिन्न थी। वाचना अर्थात् शैली एवं शब्दरचना । नन्दिसूत्र व समवायांग में भी बताया गया है कि प्रत्येक अंगसूत्र की वाचना परित्त (अर्थात् परिमित) अथवा एक से अधिक (अर्थात् अनेक) होती है। ग्यारह गणधरों में से कुछ तो भगवन् की उपस्थिति में ही मुक्ति प्राप्त कर चुके थे। सुधर्मास्वामी नामक गणधर सब गणधरों में दीर्घायु थे। अतः भगवान के समस्त प्रवचन का उत्तराधिकार उन्हें मिला था। उन्होंने उसे सुरक्षित रखा एवं अपनी शैली व शब्दों में ग्रन्थित कर आगे की शिष्य-प्रशिष्यपरम्परा को सौंपा। इस शिष्य-प्रशिष्टपरम्परा ने भी सुधर्मास्वामी की ओर से प्राप्त वसीयत को अपनी शैली व शब्दों में बहुत लम्बे काल तक कण्ठस्थ रखा। ___आचार्य भद्रबाहू के समय में एक भयंकर व लम्बा दुष्काल पड़ा । इस समय पूर्वगतश्रुत तो सर्वथा नष्ट ही हो गया केवल भद्रबाहु स्वामी को वह याद था जो उनके बाद अधिक लम्बे काल तक न टिक सका। वर्तमान में इसका नाम निशान भी उपलब्ध नहीं। इस समय जो एकादश अंग उपलब्ध हैं उनके विषय में परिशिष्ट पर्व के नवम सर्ग में बताया गया है कि दुष्काल समाप्त होने के बाद (वीरनिर्वाण दूसरी शताब्दी) पाटलिपुत्र में श्रमणसंघ एकत्रित हुआ व जो अंग, अध्ययन, उद्देशक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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