________________
18 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
हैं, जैसे :- "मोयणाए" के स्थान पर "भोयणाए", "चित्ते" के स्थान पर "चिट्टे", "पियाउया" के स्थान पर "पियायया" इत्यादि। संभव है, इस प्रकार के पाठभेद मुखाग्रश्रुत की परम्परा के कारण अथवा प्रतिलिपिकार के लिपिदोष के कारण हुए हों। इन पाठ भेदों में विशेष अर्थभेद नहीं है। हाँ कभी-कभी इनके अर्थ में अन्तर अवश्य दिखाई देता है। उदाहरण के लिए "जातिमरणमोयणाए' का अर्थ है जन्म और मृत्यु से मुक्ति प्राप्त करने के लिए, जबकि "जातिमरणभोयणाए' का अर्थ है जातिभोज अथवा मृत्युभोज के उद्देश्य से। यहाँ जातिभोज का अर्थ है जन्म के प्रसंग पर किया जाने वाला भोजन का समारंभ अथवा जातिविशेष के निमित्त होने वाला भोजन-समारंभ एवं मृत्युभोज का अर्थ है श्राद्ध अथवा मृतकभोजन।
आचारांग के कर्ता :- आचारांग के कर्तृव्य के सम्बन्ध में इसका उपोद्घातात्मक प्रथम वाक्य कुछ प्रकाश डालता है। वह वाक्य इस प्रकार है- "सुयं में आउसं! तेणं भगवया एवमक्खाय" - हे चिरञ्जीव! मैंने सुना है कि उन भगवान ने ऐसा कहा है। इस वाक्य रचना से यह स्पष्ट है कि कोई तृतीय पुरूष कह रहा है कि मैंने ऐसा सुना है कि भगवान् ने यों कहा है । इसका अर्थ यह है कि मूल वक्ता भगवान् है। जिसने सुना है वह भगवान् का साक्षात श्रोता है और उसी श्रोता से सुनकर जो इस समय सुना रहा है, वह श्रोता का श्रोता है। यह परम्परा वैसी ही है जैसे कोई एक महाशय प्रवचन करते हों, दूसरे महाशय उस प्रवचन को सुनते हों एवं सुनकर उसे तीसरे महाशय को सुनाते हों। इससे यह ध्वनित होता कि भगवान् के मुख से निकले हुए शब्द तो वे ज्यों - ज्यों बोलते गये त्यों-त्यों विलीन होते गये। बाद में भगवान् की कही हुई बात बताने का प्रसंग आने पर सुनने वाले महाशय यों कहते हैं कि मैंने भगवान् से ऐसा सुना है। इसका अर्थ यह हुआ कि लोगों के पास भगवान् के खुद के शब्द नहीं आते अपितु किसी सुनने वाले के शब्द आते हैं। शब्दों का ऐसा स्वभाव होता है कि वे जिस रूप से बाहर आते हैं उसी रूप में कभी नहीं टिक सकते। यदि उन्हें उसी रूप में सुरक्षित रखने की कोई विशेष व्यवस्था हो तो अवश्य वसा हो सकता है। वर्तमान युग में इस प्रकार के वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हैं। ऐसे साधन भगवान् महावीर के समय में विद्यमान न थे। अतः हमारे सामने जो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org