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20 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
आदि याद थे उन सबका संकलन किया : ततश्च एकादशाङ्गानि श्रीसंघ अमेलयत् तदा। जिन-प्रवचन के संकलन की यह प्रथम संगीति – वाचना है। इसके बाद देश में दूसरा दुष्काल पड़ा जिससे कण्ठस्थ श्रुत को फिर हानि पहुँची। दुष्काल समाप्त होने पर पुनः (वीरनिर्वाण 9वीं शताब्दी) मथुरा में श्रमणसंघ एकत्रित हुआ व स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में जिन-प्रवचन की द्वितीय वाचना हुई। मथुरा में होने के कारण इसे माथुरी वाचना भी कहते हैं। भद्रबाहुस्वामी एवं स्कन्दिलाचार्य के समय के दुष्काल व श्रुतसंकलन का उल्लेख आवश्यकचूर्णि तथा नन्दिचूर्णि में उपलब्ध है। इनमें दुष्काल का समय बारह वर्ष बताया गया है। माथुरी वाचना की समकालीन एक अन्य वाचना का उल्लेख करते हुए कहावली नामक ग्रन्थ में कहा गया है कि वलभी नगरी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में भी इसी प्रकार की एक वाचना हुई थी जिसे वालभी अथवा नागार्जुनीय वाचना कहते हैं। इन वाचनाओं में जिन- प्रवचन ग्रन्थबद्ध किया गया, इसका समर्थन करते हुए आचार्य हेमचन्द्र योगशास्त्र की वृत्ति (योगशास्त्रप्रकाश 3, पत्र 207) में लिखते है: जिनवचनं च दुष्णमाकालवशात् उच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवभिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषुन्यस्तम् – काल के दुष्षमता के कारण (अथवा दुष्षमाकाल के कारण) जिनप्रवचन को लगभग उच्छिन्न हुआ जानकर आचार्य नागार्जुन, स्कन्दिलाचार्य आदि ने उसे पुस्तकबद्ध किया। माथुरी वाचना वलभी वाचना से अनेक स्थानों पर अलग पड़ गई। परिणामतः वाचनाओं में पाठभेद हो गये। ये दोनों श्रुतघर आचार्य यदि परस्पर मिलकर विचार-विमर्श करते तो सम्भवतः वाचनाभेद टल सकता था किन्तु दुर्भाग्य से ये न तो वाचना के पूर्व इस विषय में कुछ कर सके और न वाचना के पश्चात् ही परस्पर मिल सके। यह वाचनाभेद उनकी मृत्यु के बाद भी वैसा का वैसा ही बना रहा। इसे वृत्तिकारों ने "नागार्जुनीयाः पुनः एवं पठन्ति' आदि वाक्यों द्वारा निर्दिष्ट किया है। माथुरी व वलभी वाचना सम्पन्न होने के बाद वीरनिर्वाण 980 अथवा 993 में देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने वलभी में संघ एकत्रित कर उस समय में उपलब्ध समस्त श्रुत को पुस्तकबद्ध किया। उस समय से सारा श्रुत ग्रन्थबद्ध हो गया। तब से उसके विच्छेद अथवा विपर्यास की
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