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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 5 वस्त्ररहित भिक्षु के विषय में तो उल्लेख आता है किन्तु करपात्री अर्थात् पाणिपात्री भिक्षु के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। वीरनिर्वाण के हजार वर्ष बाद संकलित कल्पसूत्र के समाचारी-प्रकरण की 253, 254 एवं 255वीं कंडिका में "पाणिपडिग्गहियस्स भिक्खुस्स" इन शब्दों में पाणिपात्री अथवा करपात्री भिक्षु का स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है। आगे की कंडिका में "पडिग्गहधारिस्स भिक्खुस्स" इन शब्दों में पात्रधारी भिक्षु का भी उल्लेख है। इस प्रकार सचेलक परम्परा के आगम में अचेलक व सचेलक की भांति करपात्री एवं पात्रधारी भिक्षुओं का भी स्पष्ट उल्लेख है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वस्त्रधारी भिक्षुओं के विषय में विशेष विवेचन आता है। इसमें सर्वथा अचेलक भिक्षु के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कोई उल्लेख नहीं मिलता । वैसे मूल में तो भिक्षु एवं भिक्षुणी जैसे सामान्य शब्दों का ही प्रयोग हुआ है किन्तु जहाँ-जहाँ भिक्षु को ऐसे वस्त्र लेने चाहिए, ऐसे वस्त्र नहीं लेने चाहिए । ऐसे पात्र लेने चाहिए, ऐसे पात्र नहीं लेने चाहिए – इत्यादि चर्या का विधान है वहाँ सचेलक अथवा पाणिपात्र भिक्षु की चर्या के विषय में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि द्वितीय श्रुतस्कन्ध का झुकाव सचेलक प्रथा की ओर है। सम्भवतः इसीलिए स्वयं नियुक्तिकार ने इसकी रचना का दायित्व स्थविरों पर डाला है। सुधर्मास्वामी का झुकाव दोनों परम्परओं की सापेक्ष संगति की ओर मालूम पड़ता है। इस झुकाव का प्रतिबिम्ब प्रथम श्रुतस्कन्ध में दिखाई देता है। दूसरा अनुमान यह भी हो सकता है कि नग्नता तथा सचेलकता (जीर्णवस्त्रधारित्व अथवा अल्पवस्त्रधारित्व) दोनों प्रथाओं की मान्यता होने के कारण जो समुदाय अपनी शारीरिक, मानसिक अथवा सामाजिक परिस्थितियों एवं मर्यादाओं के कारण सचलेकता की ओर झुकने लगा हो उसका प्रतिनिधित्व दूसरे श्रुतस्कन्ध में किया गया हो। जिस युग का यह द्वितीय श्रुतस्कन्ध है उस युग में भी अचेलकता समादरणीय मानी जाती थी एवं सचेलकता की ओर झुका हुआ समुदाय भी अचेलकता को एक विशिष्ट तपश्चर्या के रूप में देखता था एवं अपनी अमुक मर्यादाओं के कारण वह स्वयं उस ओर नहीं जा सकता था। एतद्विषयक अनेक प्रमाण अगशास्त्रों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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