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6 : अंग साहित्य मनन और मीमांसा
में आज भी उपलब्ध हैं। अंगसाहित्य में अचेलकता एवं सचेलकता दोनों प्रथाओं का सापेक्ष समर्थन मिलता है।
अचेलक अर्थात् यथाजात एवं सचेलक अर्थात् अल्पवस्त्रधारी – इन दोनों प्रकार के साधक श्रमणों में अमुक प्रकार का श्रमण अपने को अधिक उत्कृष्ट समझे एवं दूसरे को अपकृष्ट समझे, यह ठीक नहीं। यह बात आचाराग्र के मूल में ही कही गई है। वृत्तिकार ने भी अपने शब्दों में इसी आशय को अधिक स्पष्ट किया है। उन्होंने तत्सम्बन्धी एक प्राचीन गाथा भी उद्धृत की है जो इस प्रकार है। :
जो वि दुवत्थतिवत्थो बहुवत्थ अचेलओ व संथरइ।
न हू ते हीलंति परं सव्वे वि अ ते जिणाणाए । ।
- द्वितीय श्रुतस्कन्ध, सू 286, पृ. 327 पर वृत्ति. कोई चाहे द्विवस्त्रधारी हो, त्रिवस्त्रधारी हो, बहुवस्त्रधारी हो अथवा निर्वस्त्र हो किन्तु उन्हे एक दूसरे की अवहेलना नहीं करनी चाहिए । निर्वस्त्र ऐसा न समझे कि मैं उत्कृष्ट हूँ और ये द्विवस्त्रधारी आदि अपकृष्ट हैं। इसी प्रकार द्विवस्त्रधारी. आदि ऐसा न समझे कि हम उत्कृष्ट हैं और यह त्रिवस्त्रधारी या निर्वस्त्र श्रमण अपकृष्ट हैं, उन्हें एक- दूसरे का अपमान नहीं करना चाहिए क्योंकि ये सभी जिन भगवान की आज्ञा का अनुसरण करने वाले हैं।
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इससे स्पष्ट है कि निर्वस्त्र व वस्त्रधारी दोनों के प्रति मूल सूत्रकार से लगाकर वृत्तिकारपर्यन्त समस्त आचार्यों ने अपना समभाव व्यक्त किया है। उत्तराध्ययन में आने वाले केशी - गौतमीय नामक 23वें अध्ययन के संवाद में भी इसी तथ्य का प्रतिपादन किया गया है।
आचार के पर्याय :- जहाँ-जहाँ द्वादशांग अर्थात् बारह अंगग्रंथों के नाम बताये गये हैं, सर्वत्र प्रथम नाम अचारांग का आता है। आचार के पर्यायवाची नाम निर्युक्तिकार ने इस प्रकार बताये हैं :- आयार, आचाल, आगाल, आगर, आसास, आयरिस, अंग, आइण्ण, आजाति एवं आमोक्ष। इन दस नामों में आदि के दो नाम भिन्न नहीं अपितु एक ही शब्द के रूपान्तर हैं। " आचाल" के "च" का लोप
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