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254 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
पर च- द्वितीयस्य झ दोच्चस्स, तृतीयस्य झ तच्चस्स, च वर्ग का त वर्ग- कदाचित् झ कयाति, प्रव्रजित झ पव्वतिते, मासिक्या संलेखनया झ मासियाए संलेहणाए। यदि झ जति यहाँ य का ज, त का द- सर्वर्तुषु-सव्वोदुएं।
मध्यवर्ती ग का लोप नहीं-नगर्या झ नगरीए, अभूत का होत्था।
प्रथमा एकवचन धन्य का धन्यं रुप भी है। त ज्यों का त्यों- वदति झ वंदति, नमस्यति झ णमंसंति, दर्शयति झ दंसति, निष्क्रामति झ णिक्खामति। ___पका म- वनीपका झ वणीमगा, थ का ह- अतिथि झ अतिहि, दत्ता का
दिभा।
ट का ड- वटझवड, तटिकरालेनझतडिकरालेणं, र का ल रूक्षंझलुक्खा क का त- श्रेणिकझसेणिते, गौतम का गोयमा और गोतमा दोनों रुप हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रस्तुत अंग में शौरसेनी और मागधी के रुप मिलते हैं। कुछ रुप इन दोनों से अलग और अति प्राचीन भी हैं जैसे :- "भंते, अभये, चेतिते, नगरीए, वंदति, नमसंति, सेणिते तथा न का ण" परिवर्तन आदि।
संदर्भ :1. नंदीसूत्र, 76, पृ. 152 2. वही 79, पृ. 160 3. वही 82, पृ. 165 4. वही 54
समायांग, पृ. 185
निरयावली, 1/1 7. आवश्यक चूर्णि 2 पृ. 171 8. समवायवृत्ति, पृ. 144 9. आवश्यक (हरिभद्र) पृ. 679 10. भगवती (अभयदेव) पृ. 316
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