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________________ 44 प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया: 253 इसकी भाषा अर्धमागधी है, संपूर्ण जैन आगम साहित्य अर्धमागधी भाषा में ही लिखित है। प्रो. जैकोबी ने इसे " जैन प्राकृत' कहा है और महाराष्ट्रीय का प्राचीन रुप माना है। भारतीय वैयाकरण जैन सूत्रों की भाषा को “आर्ष' कहते हैं। रूद्रट के काव्यांलकार पर टीका करते हुए नमिसाधु ने कहा है " आरिस वचणे सिद्धं देवाणं अद्धमागहावाणी" अर्थात अर्धमागधी ऋषियों, सिद्धों और देवताओं की भाषा है। जिस प्रकार बौद्धों ने मागधी को सभी भाषाओं के मूल में माना है। उसी प्रकार जैन वैयाकरणों ने भी अर्धभागधी को सभी भाषाओं का मूल माना है। इसका कारण यह है कि भगवान महावीर ने अपना उपदेश उसी भाषा में दिया था। अर्धभागधी को मागधी और शौरसेनी का मिश्रण माना गया है इसलिए इसमें दोनों के लक्षण प्राप्त होते हैं। अनुत्तरोपपातिक में मागधी के समान ही प्रथमा एकवचन अकारान्त वर्तमानकाल में ए पाया जाता है :- भदन्त झ भंते, वारिषेणा झ वारिसेणे, अभय झ अभये, कुम्नार झ कुमारे, कहीं ओ भी है - मेघः झ मेहो, सिंह झ सीहो, निग्गतः - निग्गओ आदि । श के स्थान पर स- समवशरणम् झ समोसरणं, गुणशैलक झ गुणसिलय, दशानां झ दसाणं। क का ग- अन्तकृतदशा झ अन्तगडदसाणं, इसमें त का ड भी हुआ है। काकंदी झ कागदी, कहीं ग का लोप है- कायंदी, कहीं क ज्यों का त्यों है- काकंदी। अवादील झ वयासी होकर आदिस्वर का लोप हुआ है। न का ण - अनुत्तरोपपातिक झ अणुत्तरोववाइय। इसमें पका व भी है। इसके अलावा श्रमणेन झ समणेण । कत्य का कई, अध्ययन झ अज्झयण, प्रज्ञप्तानि झ पण्णत्ता, प्रथम झ पढ़म, चैत्यः झ चेतिते । द का र- एकादश-एक्कारस, त्रयोदश-तेरस । ऋ का उआपृच्छणा झ आपुच्छणा। ष,रा, स का स - षोउशा झ सोलस, यहाँ ड का भी ल है । कृत प्रत्यय का कच्च- कालंकृत्वा-कालंकिच्चा । यश्रुति- भाणितव्यम् - भाणियव्वं । त के स्थान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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