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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 229 जीवों द्वारा सम्मानित तथा उत्कीर्तित, भावयुक्त नमस्कृत, अतीत, वर्तमान और अनागत को जानने वाले, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अर्हत-तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा प्रणीत अर्थ से कथन किया हुआ- द्वादश अंग रुप गणिपिटक है। ___ आदि, मध्य या अन्त में कुछ शब्द भेद के साथ उसी सूत्र को बार-बार कहना गमिकश्रुत है इसके विपरीत आचारांग आदि कालिकश्रुत अगमिक हैं। जबकि दृष्टिवाद गमिकश्रुत है। अंगप्रविष्ट श्रुत में भी आचारांग आदि बारह अंगों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार दृष्टिवाद को छोड़कर ग्यारह अंगों का समावेश सम्यक्श्रुत, अगमिकश्रुत तथा अंगप्रविष्टश्रुत में हो जाता है। जिस प्रकार मनुष्य के अंग होते हैं उसी तरह श्रुत को पुरुष मानकर उसके बारह अंगों की कल्पना की गयी है। अनुत्तरोपपातिकदशा का स्थान अंग आगमों में नौवां है। .. अनुत्तरोपपातिकदशा शब्द "अनुत्तर" + "उपपात" + 'दशा" इन तीन शब्दों से बना है। इसका अर्थ है :- अनुत्तरविमान में उत्पन्न होने वाले की अवस्था या अनुत्तरविमान में उत्पन्न होने वाले दस लोगों का वर्णन या दस अध्ययन। ... स्थानांगसूत्र में इन दस नामों का उल्लेख इस प्रकार प्राप्त होता है:- ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, संस्थान, शालिभद्र, आनन्द, तेतली, दशार्णभद्र और अतिमुक्तक। समवायांग में दस अध्यायों की सूचना तो है किन्तु इनके नाम नहीं दिये गये हैं, दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों-तत्त्वार्थराजवार्तिक, धवला, जयधवला तथा अंगपण्णत्ति में अनुत्तरोपपातिक के विषय में सूचना प्राप्त होती है। राजवार्तिक में इसके दस अध्ययन हैं :- ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण तथा चिलातपुत्र। धवला में राजवार्तिक के समान उल्लेख मिलता है। इसमें केवल कार्तिक के स्थान पर कार्तिकेय तथा नन्द के स्थान पर आनन्द नाम प्राप्त होता है। अंगपण्णत्ति में इसके क्रम में अन्तर है। इसमें दस नाम इस प्रकार हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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