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XXIIL : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
नहीं है। स्थानांगसूत्र में दूसरे अध्ययन का जो गोत्रास नाम कहा गया है वह वर्तमान में उपलब्धा दुखविपाक के दूसरे अध्ययन में उल्लिखित उज्झितक के ही पूर्व भव का नाम है इसी प्रकार अभग्नसेन नामक तीसरे अध्याय का नाम भी उसके द्वारा पूर्व भव में अण्डे का व्यापार करने के कारण अण्ड कहा गया है। बृहस्पतिदत्त के जाति से ब्राह्मण होने के कारण स्थानांगसूत्र में उस अध्याय का नाम ब्राह्मण कहा गया है। सहस्रोद्दाह-आमरक का सम्बन्ध भी राजा की माता को तप्त शलाका से मारने वाली देवदत्ता के साथ जुड़ा है। अतः इसे देवदत्ता नाम दिया गया है। कुमारलिच्छवी के स्थान पर जो अंजू नाम उपलब्ध होता है वह नाम भी उसके अपने अन्तिम भव में किसी सेठ के यहाँ अंजू नामक पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण करने के कारण हुआ है। अत: नामों को इसी भिन्नता से कथावस्तु की समरूपता में कोई अन्तर नहीं आया है।
विपाकसूत्र के दूसरे विभाग सुखविपाक के जो दस अध्ययन है उनका स्थानांगसूत्र में कही कोई निर्देश नहीं है। ऐसा लगता है कि यह विवरण परवर्ती काल में किन्तु वलभी वाचना के पूर्व इसमें जोड़ा गया है।
बारहवें अंगसूत्र को दृष्टिवाद के नाम से जाना जाता है। शब्दिक अर्थ की दृष्टि से यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में भगवान महावीर के पूर्ववर्ती एवं समकालीन विभिन्न दार्शनिक मत-मतान्तरों (दृष्टियों) एवं विचारों को संकलित किया गया होगा। दृष्टिवाद के मूलतः पाँच अधिकार माने गये है- 1 परिकर्म, 2 सूत्र, 3. प्रथमानुयोग (कथाएँ), 4. पूर्वगत और 5 चूलिका। यह भी स्वाभाविक है की इसके पूर्वगत भाग के अन्तर्गत भगवान महावीर के पूर्ववर्ती 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्व के दार्शनिक विचारों का संकलन रहा होगा।
आज जैन धर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही शाखाएँ इस आगम ग्रन्थ के लुप्त होने की बात स्वीकार करती है फिर भी उनकी यह मान्यता है कि इसके पूर्वगत विभाग के आधार पर परवर्ती काल में अनेक ग्रन्थों की रचना हुई है किन्तु इतना निश्चित है कि यह अंग आगम अपने मूल स्वरूप में स्थिर नहीं रह सका। चाहे दृष्टिवाद आज अपने मूल स्वरूप में अनुपलब्ध हो किन्तु उसके कुछ अंश श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के मान्य ग्रन्थों में सुरक्षित है। श्वेताम्बर परम्परा में उत्तराध्ययन सूत्र के कुछ अध्ययन, दशासूत्रस्कन्ध, वृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि आगम ग्रन्थ तथा जीवसमास, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि कर्म साहित्य के ग्रन्थ पूर्वो के आधार पर ही निर्मित हुए है। दिगम्बर परम्परा में भी कषायपाहुड, षटखण्डागम आदि को पूर्वो से उदृत माना जाता है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि चाहे सम्पूर्ण रूप में न सही किन्तु आंशिक रूप से पूर्व साहित्य हमें आज भी विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध हो रहा है।
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